Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 16
________________ जैन धर्म और जीवन-मूल्य सुख और स्वर्ग की प्राप्ति तक ही धार्मिक कार्यों का उद्देश्य रह गया। फिर भी अहिंसा और अध्यात्म के तत्त्व श्रमण संस्कृति के माध्यम अस्तित्व में बने रहे। ___ भगवान, ऋषभदेव के समय की संस्कृति ने केवल वैदिक संस्कृति को ही प्रभावित नहीं किया बल्कि उसके कुछ मौलिक तत्व बाद में भी अपना अस्तित्व बनाये रहे और विकसित होते रहे। ऋग्वेद में वातरशना मुनियों का उल्लेख, बाद में व्रात्यों एवं यतियों की जीवनचर्या के वर्णन तथा ऋषभदेव आदि के उल्लेख इस बात के प्रमाण हैं कि एक अवैदिक साधकों की परम्परा निरन्तर गतिशील रही है, जिससे बाद के क्रान्तिकारी साधकों ने जन्म लिया है । ऋषभदेव के बाद और नेमिनाथ के पूर्व के बीस तीर्थंकरों के समय की संस्कृति का यद्यपि कोई विवरण प्राप्त नहीं है । केवल उनकी जीवनी आदि के उल्लेख मिलते हैं। लेकिन उनकी ऐतिहासिकता में सन्देह करने का कारण भी नहीं दिखायी पड़ता। जैन-परम्परा इस बात को मानकर चलती है कि भगवान् ऋषभ के समय लोग सरल और अज्ञानी (ऋजु जड़) थे अतः उनको कर्म के लिए प्रेरित कर तैयार करना बहुत जरूरी था । वह ऋषभदेव ने किया । और उसका जैन पुराणकारों ने विस्तृत विवरण भी प्रस्तुत किया है। लेकिन बाद के तीर्थंकरों के समय के लोग सरल और बुद्धिमान (ऋजु-प्रज्ञ) हो गये थे । जो बात एक बार समझा दी जाती थी उसका वे आचरण करने लगते थे। अतः उनमें किसी विशेष परिवर्तन की पावश्यकता नहीं थी । तीर्थंकर होते रहे । अपने कल्यागा के साथ ही साथ उपदेश देकर दूसरों का कल्याण भी करते रहे । सबकी सभी क्रियाएं जैन-मान्यता के अनुसार समान थीं । अतः किसी एक का कोई विशेष विवरण साहित्य में नहीं दिया गया। परन्तु तीर्थङकर नमिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर के समय के लोगों की प्रवृत्ति कुछ भिन्न थी। अतः उनके साथ कुछ विशेष घटनाएं घटीं और उनके जीवन-चरित का विवरण देना आवश्यक हो गया । वही इतिहास बन गया । नमि मिथिला के राजा थे । इन्हें हिन्दू पुराणों में भी जनक का पूर्वज माना गया है । नमि की प्रव्रज्या एवं तपस्या का वर्णन समान रूप से जैन, वैदिक एवं बौद्ध परम्परा के प्राकृत, संस्कृत और पालि साहित्य में यत्र-तत्र मिलता है, जो भारतीय अध्यात्म सम्बन्धी निष्काम कर्म व अनासक्ति भावना के प्रकाशन के लिए सर्वोत्कृष्ट साधन हैं। नमि की अनासक्ति वृत्ति मिथिला में जनक तक पायी जाती है और शायद इसी कारण वंश और उनका समस्त प्रदेश विदेह (देह से निर्मोह, जीवनमुक) कहलाया। भगवान् पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता अब प्रामाणिक हो चुकी है । पार्श्वनाथ का जैन संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा। ऋषभदेव की सर्वस्व त्यागरूप अकिंचन, मुनिवृत्ति, नमि की निरीहता व नेमिनाथ की अहिंसा को उन्होंने अपने चातुर्याम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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