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महायानी आदर्श और जैनधर्म
बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के विकास का युग ईसा पूर्व छठी शताब्दी माना जाता है । इस समय में प्रचलित श्रमण परम्परा से भगवान् बुद्ध एवं भगवान् महावीर ने क्रमशः बौद्ध धर्म एवं जैनधर्म का विकास किया है । उन्हें व्यवस्थित रूप प्रदान किया | महावीर द्वारा प्रचारित धर्म 'जिनों' की एक लम्बी परम्परा से विकसित हुआ था तथा उसमें इन्द्रिय-जय की प्रवृति बलवती थी । अतः वह 'जैन धर्म' के नाम से जाना गया, महावीर के व्यक्तिगत नाम से नहीं किन्तु भगवान बुद्ध द्वारा प्रचारित धर्म के केन्द्र बिंदु स्वयं बुद्ध थे, उनकी सम्बोधि थी अतः वह धर्म 'बौद्धधर्म' के रूप में विख्यात हुआ । विकास के इस क्रम से ही ज्ञात होता है कि जैनधर्म में गुण- पूजा, चरित्र साधना प्रमुख रही, जबकि बौद्धधर्म का झुकाव व्यक्तित्व- पूजा की ओर अधिक रहा । इस कारण उसमें प्रागे चलकर श्रद्धा और भक्ति की भावनाएं भी अधिक विकसित हुई हैं । महायानी बौद्धधर्म इन्हीं भावनाओं को लेकर आगे बढ़ा है ।
महायानी बौद्धधर्म के उदय के सम्बन्ध में यह प्रायः कहा जाता है कि उसके प्रादि- पुरस्कर्ता महासंघिक बौद्धभिक्षु थे, जो संख्या की दृष्टि से बड़े थे और जिन्होंने प्राचीन बौद्धधर्म में कुछ संशोधन स्वीकार किये थे । उनका प्रमुख केन्द्र दक्षिण भारत था । ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी तक महायानियों का दक्षिण भारत में अच्छा प्रभाव जम गया था। इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि जैनधर्म के इतिहास में जो दो बड़े भाग हुए उनकी भी यही कहानी है । दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों का उदय जनसंघ के दक्षिण भारत में पहुंचने के बाद ही हुआ है । विद्वानों का मत है कि देश - काल की परिस्थिति के कारण जैन साध्वाचार में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने कुछ संशोधन स्वीकार किये । किन्तु उसका मूल जैनधर्म से सम्बन्ध कभी नहीं टूटा । बौद्धधर्म के इतिहास में हीनयान एवं महायान की भी लगभग यही स्थिति है ।
त्रयोदशा
महायान सम्प्रदाय के विकास में मूलतः महासंघिक भिक्षुनों के आचरण और विचार कारण रहे हैं किन्तु उसके स्वरूप निर्माण में अन्य प्रवृतियों ने भी प्रभाव डाला है । विद्वानों ने तत्कालीन विभिन्न धर्मों के प्रभाव पर भी विचार किया है ।
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