Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 116
________________ 106 जैनधर्म और जीवन-मूल्य माणिक्यसन्दरगणि :-मेवाड़ के ये समर्थ कवि थे । इनकी साधना का केन्द्र देलवाड़ा था। इन्होंने वि० सं० 1463 में देवकूल पाटकपूर में श्रीधरचरित महाकाव्य लिखा था । इस ग्रन्थ को प्रशस्ति से ज्ञान होता है के ये अचलगच्छ के मेरुतुग के शिष्य थे । जयशेखरसूरि से इन्होंन शिक्षा प्राप्त की थी। इनकी रचनाओं में चतुष्यर्वी, शुकराजकथा, पृथ्वीचन्द्र चरित (प्राचीन गुजराती ), गुण वर्म चरित, धर्मदत्त कथा, अजायुज कथा एवं आवश्यक टीका आदि हैं ,38 इन्होंने महाबलमलयसुन्दरी चरित्र भी लिखा है। वि० स० 1501 में इनके शिष्य माणिक्यरत्नगणि द्वारा लिखित 'भवभावनाबालावबोध, भी प्राप्त होता है।39 5. प्रतिष्ठासोम-महाराणाकुम्भा के समकालीन कवियों में महाकवि प्रतिष्ठा सोम का प्रमुख स्थान है । इन्होंने सं. 1524 में सोमसौभाग्य काव्य की रचना की थी।40 यह ग्रन्थ मेवाड़ की तत्कालीन संस्कृति के दिग्दर्शन के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है। 6. जिनमण्डनगणि-तपागच्छ के प्रभावक प्राचार्य सोमसुन्दरसरि के ये शिष्य थे। इन्होंने सं. 1491-92 में कुमारपालप्रबन्ध की रचना की थी। इनकी अन्य रचनाएं धर्मपरीक्षा एवं श्राद्धगुण-संग्रह विवरण हैं, जो सं. 1498 में लिखे गये थे। 7. जिनकीति42 - सोमसन्दरसरि के ये प्रभावशाली शिष्य थे। इन्होने वि. सं. 1494 में नमस्कारस्तव लिखा है । इनकी अन्य रचनाओं में चम्पक श्रेष्ठि कथानक, दानकल्पद्रुम (धन्यशाली चरित्र) सं, 1497 में श्रीपालगोपालकथा, श्राद्धगुण संग्रह (स. 1498) प्रादि प्रमुख हैं। जिनहर्षगणि-इन्होंने वि. सं. 1497 में चित्तौड़ में वस्तुपालचरित की रचना की थी। यह काव्य ऐतिहासिक एवं काव्यात्मक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है 143 जिनहषंगणि जयचन्द सूरि के शिष्य थे। इनकी अन्य रचनामों में प्राकृत की रयणसेहरीनिककहा, आरामशोभाचरित्र विशंतिस्थानक विचारामृत संग्रह, प्रतिक्रमणविधि आदि प्रमुख है। इनके ग्रन्थ हर्षांक से अंकित हैं । 44 सम्यक्त्वकौमुदी इनकी कथात्मक रचना है ।45 चारित्र रत्नगणि-ये जिन सुन्दरसरि और सोमसुन्दरसूरि के शिष्य थे। इन्होंने सं. 1499 में चित्तौड़ में 'दान प्रदीप' नामक ग्रन्थ की रचना की थी।46 इस ग्रन्थ में दान के प्रकार एवं उनके फलों का अच्छा विवेचन है । यह ग्रन्थ बारह प्रकाशों में विभक्त है । ग्रन्थ की प्रशस्ति महस्वपूर्ण है । उसमें स्पष्ट उल्लेख है 9. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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