Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 119
________________ कुम्भकालीन मेवाड़ में जैनधर्म अन्य साहित्य मेवाड़ में काव्यात्मक एवं धार्मिक ग्रन्थों के प्रतिरिक्त जैन कवियों ने इस युग में अन्य विधायों के ग्रन्थ भी लिखे हैं । उनमें प्रशस्तिकाव्य, तीर्थमाला, पट्टावली, विज्ञप्ति-पत्र आदि प्रमुख हैं । चारित्ररत्नगणि द्वारा सं. 1495 में चित्तौड़ में लिखी गयी महावीर मन्दिर प्रशस्ति प्रसिद्ध है । विभिन्न जैन ग्रन्थों की प्रशस्तियों में भी मेवाड़ और राजस्थान के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण सामग्री भरी पड़ी है। राजस्थान के 15 वीं शताब्दी के तेजपाल, पूर्णभद्र, दामोदर, हरिचन्द्र, यशकीर्ति रइघू प्रादि ऐसे अपभ्रंश के कवि हैं, जिनके ग्रन्थों की प्रशस्तियां ऐतिहासिक महत्त्व की है । द्वयाश्रयवृत्ति (सं. 1485) उत्तराध्ययन सूत्र प्रवचूरि ( स 1486), कथाकोष प्रकरण (सं. 1485) दशर्वकालिक नियुक्ति (सं. 1489 ) आदि ग्रन्थों की प्रशस्तियों से बागड़ के शासक महारावल गोपीनाथ की तिथियों को निश्चित करने में मदद मिलती है । सं. 1499 में कवि 'मेह्उ' ने श्रादिनाथ स्तवन लिखा है, जिसमें राणकपुर मन्दिर के प्रादिनाथ की स्तुति है । मन्दिर निर्मारण के 3 वर्ष बाद ही कवि इसकी स्तुति करते हुए कहता है 61 छड मुखशिखर त्रिभूभई बार मूलनाइक जिण करू जुहार । त्रिहु भूमि त्रिभुवनदीपंतु, त्रिभुवनदीपक नाम धरन्तु । दण्डकलस सोवनमइ सोहइ, जो अंत तिहुश्रण मनमोहइ । तेजपुंज नहलइ अपार जाणो तिहुश्रणलाछि भंडार | , इसी कवि ने तीर्थमाला-स्तवन भी लिखा है । इसकी प्रति उदयपुर के खंडेलवाल जैनमन्दिर के ग्रन्थ - भन्डार में है । माण्डवगढ़ के मेघमन्जी ने सं 1500 में तीर्थमाला' की रचना की थी। इसमें चन्द्रावती नगरी श्रौर वहाँ के मन्दिरों का वर्णन है । इस युग के साहित्य की इतनी समृद्धि से यह स्पष्ट है कि मेवाड़ शासकों का जैन कवियों एवं आचार्यों के प्रति सम्मान का भाव रहा है तथा उन्हें शान्ति का वातावरण भी प्राप्त रहा है 182 जैन कलाकृतियाँ : Jain Education International 109 महाराणा कुम्भा के समय का मेवाड़ केवल राजनैतिक दृष्टि से सुस्थिर एवं साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से समृद्ध ही नहीं था, अपितु कला की दृष्टि से अलंकृत भी था । कुम्भा ने अपने वशजों की कला प्रियता को सुरक्षित रखते हुए अपने कलाज्ञान से उसे विकसित भी किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि मेवाड़ एवं राजस्थान के अन्य क्षेत्रों की जैनकला एवं स्थापत्य से महाराणा कुम्भा को प्रेरणा के साथ-साथ प्रतिस्पर्द्धा भी प्राप्त हुई थी । इसीलिए उन्होंने अपने समय में हिन्दू कला को पर्याप्त विकसित किया। उनके इस कला प्रेम ने जैन श्रावकों और साधुओं में प्रदम्य उत्साह को जगाया था । इससे संस्कृति के दोनों छोर हिन्दु और जैन साथ-साथ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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