________________
जैन साहित्य में जीवन-मूल्य
121
प्राकृत-अपभ्रंश-साहित्य में उद्देश्य को स्पष्टता होने के कारण एक लाभ यह हुआ कि कथा की अनेक विधाएं जन्म ले सकी ; सकलकथा, खंडकथा, उल्लापकथा, परिहासकथा और संकीर्णकथा प्रादि । धर्मकथा, अर्थकथा एवं कामकथा जैसा विभाजन एक साथ दो उद्देश्यों की पूर्ति कर सका। ये तीनों पुरुषार्थ साहित्य के प्रतिपाद्य भी हैं और उसके सृजन के लिए वातावरण आदि का आधार भी उपस्थित करते हैं । इस कारण प्राकृत-अपभ्रश के कथाकार अपने कथन के प्रति अधिक निष्ठावान हैं। वे जब पाठक को कामवृत्ति से परिचित कराना चाहते हैं, तो कामकथा को पूर्णता से कहते हैं, जब भौतिक समृद्धि की उपयोगिता प्रदर्शित करना चाहते हैं, तो अर्थकथा उन का माध्यम होती है और इन दोनों कथाओं के द्वारा वे जीवन की यथार्थता का इतना दिग्दर्शन करा देते हैं कि पाठक स्वयं कुछ
आगे की बात, शाश्वत सुख के स्वरूप आदि को जानने का इच्छुक हो उठता है, तब उसे धर्मकथा पढ़ने व सुनने को मिलती है।
इस युग में जीवन-मूल्यों की स्थापना के पीछे समन्वयात्मक अनुभूति की प्रधानता रही है। गुप्त युग की सांस्कृतिक चेतना का प्रभाव अभी ताजा था, जैसे समस्त की अनुभूतियों का समन्वय कर लिया गया हो। किसी एक व्यक्ति के बनने व बिगड़ने की चिन्ता इस युग के साहित्यकार को नहीं थी। वह ऐसा मूल्य प्रतिपादित करना चाहता था, जिसमें सार्वभौमिक कल्याण निहित हो। व्यक्ति वैशिटय की अपेक्षा सामान्य रसात्मक अनुभूति प्रस्तुत करना किसी भी अच्छे साहित्य की उपयोगिता थी । प्राकृत-अपभ्रश साहित्य में इस तथ्य को गहराई से पकड़ा गया है । अतः इस साहित्य के चरित्र या तो अतिशय पुण्यात्मा हैं अथवा घोर पापात्मा । मिश्रित व्यक्तित्व की स्वीकृति न साहित्य में थी और न समाज में । चुनाव के दो ही रास्ते थे सद वृत्तियों का प्रथवा असद वृत्तियों का पोषण । शायद इसीलिए पाखंडी व्यक्तित्वों की खुलकर आलोचना इस साहित्य के माध्यम से हुई है। इस दृष्टिकोण के कारण प्राकृत-अपभ्रश साहित्य के मूल्य यथार्थवादी होते हुए भी आदर्श के प्रति अधिक उन्मुख हैं ।
सद -असद वृत्तियों का विस्तारपूर्वक निरूपण करने की फलश्र ति यह हई कि इस साहित्य में संघर्षमय जीवन और पुरुषार्थ के प्रति "निष्ठा" जैसे मूल्यों को अधिक स्थान मिला । जन्म-जन्मान्तरों की कर्मश्रखला भी पुरुषार्थ के माध्यम से प्रवरुद्ध की जा सकती है, ऐसा विश्वास जन-मानस में दृढ़ होने लगा। कठिन से कठिन कार्य सम्पन्न करने की चुनौतियां स्वीकार की जाने लगीं। दृष्टव्य है'पउमचरिउ' में केले की तरह सुकुमार बालक राम की यह उक्ति
किं तम हणइ ण बाल रवि कि वालु दवग्गि ण डहइ वण । किं करि दलइ ण वालु हरि किं वाल ण डंकइ उरगमणु ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org