Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 136
________________ जैन धर्म और जीवन-मूल्य प्रति इस युग का दृष्टिकोण क्या था, इसकी व्याख्या इस साहित्य में प्रतीकों के माध्यम से हुई है । राजकुमारों श्र ेष्ठिपुत्रों, सामन्तों की दीक्षा आदि के जहाँ प्रसंग हैं, वहाँ उनकी समृद्धि का विस्तृत वर्णन भी है, जो इस बात का साक्षी है कि इतकी सम्पदा होने पर भी वे भौतिक सुख से संतुष्ट नहीं हो सके | उन्हें अध्यात्म के धरातल पर उतरना पड़ा। पूँजीवाद एवं समाजवाद जैसे शब्दों का प्रयोग भले इस युग में न हुआ हो, किन्तु इनके प्राशय को संप्रेषित करने में मात्र एक शब्द ही पर्याप्त था - 'दव्व' (द्रव्य ) । अर्थ की उपयोगिता मात्र इतनी है कि वह द्रवित होता रहे । एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलता रहे। इसकी निष्पत्ति है अपरिग्रह | समाजवाद की पूर्ण व्यावहारिकता । अतः प्राकृत अपभ्रंश साहित्य में अर्थ की, सम्पत्ति की जो निन्दा की गई है, वह उसकी उपयोगिता की निन्दा नहीं है, अपितु उसके संग्रह के प्रति विरोध का नारा है । इसी लिए अर्थ कथानों में विभिन्न शिल्प, विद्या उपाय आदि के द्वारा न केवल धनार्जन किए जाने के उल्लेख हैं, अपितु समृद्धि का कैसे विभाजन हो इसके साधन भी निर्दिष्ट किए गए हैं । श्राध्यात्मिक मूल्य प्राकृत अपभ्रंश साहित्य का सबसे मुखर स्वर प्राध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना के प्रति है, क्योंकि इसके लेखक साहित्यकार ही नहीं, जीवन के परमलक्ष्य के अन्वेषक भी थे । वे जानते थे कि आर्थिक शोषण उतना हानिकारक नहीं है, जितना प्राध्यात्मिक शोषण । अध्यात्म से विमुख हो जाने पर जन-मानस का भावजगत् ही ऊसर हो जाता है । अतः उन्होने धर्म-कथाओं के माध्यम से प्राध्यात्मिक मूख जगाने का प्रयत्न किया है। इसलिए प्राकृत कथाएं पहले पाठक को जगत् की वस्तुस्थिति से परिचित कराती हैं और फिर उसे छोड़ देती हैं । वह स्वतन्त्र है कि वह अपने हित की बात चुन ले । प्रायः अशुभ को अशुभ जान लेने के बाद उस प्रोर कदम नहीं उठते । इस कारण इस साहित्य में उन विकृतियों के प्रति पूर्ण श्राक्रोश का स्वर मिलता है, जो प्रात्मिक उत्थान के मार्ग में बाधा हैं, चाहे वे धार्मिक क्रियाकाण्ड हों अथवा सामाजिक अन्ध-विश्वास | 126 इस युग के साहित्य में जिन आध्यात्मिक मूल्यों का वर्णन है, उनमें से प्रमुख हैं - ( 1 ) कर्म सिद्धान्त का प्रतिपादन ( 2 ) जगत् को नश्वरता (3) मनुष्य जीवन की सार्थकता तथा (4) शाश्वत सुख की तलाश । यद्यपि इन सभी मूल्यों के केन्द्रों में सद्वृत्तियों के प्रति आस्था और प्रसद वृत्तियों के परिशोधन का चिन्तन निहित है । किन्तु इसकी पृष्ठभूमि जैन धर्म के सिद्धान्तों द्वारा निर्मित हुई है । यदि इन कथाओं से परिभाषिक शब्दजाल को निकाल दिया जाय, तो इन मूल्यों की सार्वजनीन प्रतिष्ठा हो जाती है । इनके सम्बन्ध में किंचित् विस्तार से विचार किया जा सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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