________________
जैन साहित्य में जीवन-मूल्य
125
प्रेम । आचार्य हरिभद्र ने सार्थवाह-पुत्र धन और उसकी पत्नी लक्ष्मी की कथा द्वारा नारी के ये सभी रूप उपस्थित किए हैं, जो पति के जीवन एवं प्रतिष्ठा के लिए घातक हैं । कुवलयमालाकहा में दाम्पत्य प्रेम के आदर्शरूप को प्रस्तुत किया है । श्रेोष्ठिपुत्र प्रियकर और उसकी पत्नी सुन्दरी में इतना अगाध प्रेम था कि व्याधि से प्रियंकर की मृत्यु हो जाने पर भी सुन्दरी उसे जीवित मानती रही । जब उसके परिवार वालों ने उसे समझाने की कोशिश की तो वह अपने मतपति को लेकर घरबार छोड़कर एकान्तवास करने लगी । इसी तरह की अन्य कथाएँ भी दाम्पत्यप्रेम की पुष्टि करती हैं। (ii) परिवार
दाम्पत्यप्रेम को नींव पर सुदृढ. परिवार व्यवस्था की आकांक्षा का स्वर इस युग के प्राकृत-अपभ्रश साहित्य में है । सयुक्त परिवार की उपयोगिता सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से स्वीकार कर ली गयी थी। परिवार में कलह न हो इसके लिए परिवार का प्रत्येक सदस्य त्याग के लिए प्रस्तुत रहता था। जीवन के इस प्रमुख मूल्य की स्थापना भारतीय समाज में प्रारंभ से ही रामकथा के माध्यम से होती आयी है । अपभ्रश कवियों ने उसे तो अपनाया ही, कुछ नये आदर्श भी प्रस्तुत किए । पउमचरिउ के राम को दशरथ वन जाने की आज्ञा नहीं देते, अपितु राम स्वयं इसलिए घर से निकल पड़ते हैं कि उनके रहते हुए भरत का व्यक्तित्व नहीं उभरेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य की किरणों के रहते हुए चन्द्रमा शोभा को प्राप्त नहीं होता
जिह रवि-किरणेंहि ससि ण पहावइ । तिह मई होन्ते भरहु ण भामइ ।।। ते कज्जे वण-वासें वसेवउ ।
-प. च. 25-5-3 परिवार में सदस्यों की निस्वार्थता जितनी स्थिरता लाती है, उतना ही सुख नारी के प्रति सौजन्यपूर्ण व्यवहार से प्राप्त होता है । यद्यपि परिवार से घटक में पतिपत्नी एवं सास-बह के कलह के कम उदाहरण इस साहित्य में नही मिलते, तथापि परिवार के कल्याण की कामना ही इन साहित्यकारों ने की है। जहां-कहीं पारिवारिक सम्बन्धों में शिथिलता आदि का प्रसंग है, नारी की अशुचिता एव कपट का वर्णन है, वह सब संसार की अस्थिरता एवं मोह-माया की तीव्रता का बोध कराने के लिए है। प्रार्थिक मूल्य
इस साहित्य में जीवन के आर्थिक पक्ष का जितना वर्णन हैं, शायद दूसरे किसी साहित्य में नहीं है । वणिकपुत्रों को साहसपूर्ण यात्राओं के माध्यम से तत्कालीन अर्थव्यवस्था की विस्तृत जानकारी इस साहित्य में मिलती है । किन्तु अर्थ के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org