Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 133
________________ जैन साहित्य में जीवन मूल्य 123 (i) प्रेम सामाजिक मूल्यों में प्रेम की भावना एक प्रमुख जीवन-मूल्य के रूप में स्वीकार की गई है । मानव मन में रति का जो भाव है, वह अनेक रूपों में उभरकर सामने आता है । काम के प्रति प्रासक्ति, रोमान्स एवं प्रेम का विकास जीवन की अनिवार्य वृत्तियों में से है, इस तथ्य को प्राकृत कथाकार स्वीकार करके आगे बढ़े हैं । कामवृत्ति की सम्यक अभिव्यक्ति हो सके इसके लिए उन्होंने साहित्य की एक विधा का नाम ही 'कामकथा' रख दिया था। उनके अनुसार रूप सौन्दर्य, युवावस्था वेश, दाक्षिण्य, कलानों में निपुणता, श्रुत, अनुभूत और प्रत्यक्ष प्रेम सम्बन्धी विषयों का निरूपण करना काम-कथा है । यथा रुवं वप्रो य वेसा दक्खत्तं सिक्खियं च विसएस। दिट ठं सुयमण भ यं च संथवो चेव कामकला ।। दशकालिक, गा० 192 कामकथा के माध्यम इस युग के साहित्य में प्रेम के अनेक चित्र उपलब्ध हैं। भाई-बहिन, पति-पत्नी, माता-पुत्र आदि के प्रेम सम्बन्धों का यथार्थ चित्रण इन कवियों ने किया है। इन प्रेम-सम्बन्धों की उत्कृष्टता प्रकट करने के लिए उन्होने अनेक लोककथानों को साहित्य का विषय बनाया है । अपभ्रश के कवियों ने प्रेम के जितने प्रसंग उपस्थित किए हैं, उन्हें इन रूपों में विभक्त किया जा सकता है- (1) विवाह के लिए प्रेम. (2) विवाह के बाद दाम्पत्य प्रेम (3) असामाजिक प्रेम-यथा किसी रानी का अपनी हस्तशाला के कुरूप नौकर से प्रेम-सम्बन्ध आदि, (4) रोमाण्टिक प्रेम तथा (5) विषय प्रेम । इन सब के उदाहरण प्रस्तुत करना यहाँ संभव नही है । किन्तु अपभ्रंश कथाकारों के दृष्टिकोण को अवश्य समझा जा सकता है । स्वयम्भू से लेकर पुष्पदन्त तक सभी कथाकार आदर्श प्रेम के पक्षपाती हैं । वे दाम्पत्य-प्रेम की वृद्धि में उन सभी बातों का वर्णन कर जाते हैं, जो कामवृत्ति से सम्बन्धित हैं । प्रायः इन कवियों ने संयोग की अपेक्षा विप्रलम्भ श्रींगार का अधिक वर्णन किया है। रति का भाव वहाँ दूसरे की अपेक्षा अपनी प्रात्मा का पालम्बन बनकर रहता है । असामाजिक प्रेम के प्रसंगों के वर्णन में इन कवियों ने उसे चरमोपलब्धि तक नहीं पहुँचने दिया । अनुचित प्रेम करने वाले प्रेमी को या तो अपनी भूल समझ में आ जाती है अथवा कोई माध्यम बीच में आ टपकता है। परपुरुष से चाहे विवाहिता स्त्री का प्रेम हो अथवा कन्या का, दोनों को ही अनिष्टकारी स्वीकार किया गया है। स्वयम्भ को अशंका थी कि जो कन्या पर-पुरुष को चाहने लगती है, वह विवाह होने पर क्या इस बादत को छोड़ देगी? जा कष्ण होवि पर-णरु-वरइ । सा कि घड़े ढन्ती परिहरिइ ॥ -प.च. 36-13-8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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