Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 134
________________ जैन धर्म और जीवन-मूल्य इसी प्रकार अकारण प्रेम प्रदर्शित करने वाले व्यक्ति से, चाहे वह मित्र ही क्यों न हो, अनैतिक प्रेम-सम्बन्ध पनपने की आशंका इन कवियों के साहित्य से प्रगट होती है । स्पष्ट शब्दों में नीति का चिंतन करते हुए राम सोचते हैं 124 जो मित्त प्रकार एइ घरु । सो पत्तिपट्ठ कलत्त हरु || 36-13-8 के प्राकृत कथाकार प्रेम सम्बन्ध में कुछ अधिक अनुभवी प्रतीत होते हैं । उन्होने यद्यपि अनैतिक प्रेम को प्रश्रय तो नहीं दिया, किन्तु प्रेमी-प्रेमिकाओं के प्रेम को आदर्श रूप में बिकसित होने देने के लिए वातावरण तैयार किया है । हरिभद्र ने कहा है सइदंशणाउ पेम्मं पैम्माउ रइ रईए विस्संम्भों । विसंभा पण पचविहं बड्ढए पैम्मं ॥ निरन्तर दर्शन, प्रेम, रति, विश्वास और प्ररणय इन पाँच कारणों से प्रेम वृद्धि को प्राप्त होता है : समराइच्चकहा में प्रेम के इन सभी कारणों का विकास हुआ है । कुवलयमालाकहा में एक प्रेमकथा का सुन्दर उदाहरण हैं । प्रेम की उपलब्धि के लिए केवल भावुक होना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु जो पराक्रमी एव वान है, वही दूसरे के प्रेम को प्राप्त कर पाता है । प्राकृत कथाकारों ने प्रेमीप्रेमिकाओं के घंर्य एवं उनकी दृढ़ता की अनेक परीक्षाएँ लेकर उन्हें शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने के योग्य माना है । प्रथम दर्शन व मिलन में वासना की तृप्ति कर लेना इन कथाकारों को स्वीकार नहीं था । उस युग की युवतियाँ भी सामान्य रूप से चुनौती स्वीकार करने वाले युवकों की और आकर्षित होती थीं । अतः परिश्रम और साहस प्रेम जैसे मूल्य के पोषक तत्व थे । इनसे पुण्यार्जन होता था और उससे जीवन के लक्ष्य को प्राप्ति परिभ ु 'जउ न याणइ लच्छिं पत्तं पि पुण्यपरिहीणो । विक्कमरता हु पुरिसा भजंति परेसु लच्छोश्रो ।। - कथाकोषप्रकररण प्राकृत-साहित्य में प्रेम-व्यापार की प्रमुख विशेषता यह है कि प्रायः सभी कथाओं में प्रेम का प्रारंभ नारी की प्रोर से हुआ है, जो प्रेम के विकास की विशुद्ध भारतीय पद्धति है । प्रेम की सफलता के लिए प्रेमिका के त्याग, निस्वार्थता आदि गुणों का पूर्ण परिपाक हुआ है । कई प्रेम-प्रसंगों में तो मानसिक और आत्मिक योग का इतना आधिक्य है कि शारीरिक संयोग नगण्य-सा हो गया है। तरंगवती की प्रेम-कथा इस ढंग की अनोखी कथा है । Jain Education International दाम्पत्य प्रेम के दोनों रूप इस साहित्य में प्राप्त हैं- विवाह के बाद एक दूसरे के लिए सर्वस्व निछावर करने वाला प्रेम एवं पति-पत्नी के कलह और कपटपूर्ण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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