Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 132
________________ जैन धर्म और जीवन-मूल्य परम्परा और पूर्वजों से प्राप्त घन एवं यज्ञ के प्रति भी पुरुषार्थी एवं साहसी सार्थवाह पुत्रों की श्रासक्ति नहीं रह गई थी । वे अपने बाहुबल द्वारा अर्जित धन का उपयोग करना ही पुरुषार्थ की कसौटी मानते थे । इससे प्राकृत कथाकारों की दृष्टि से दो निष्पत्तियां हुईं एक तो देश-विदेश के विभिन्न स्थानों का भ्रमण कर जगत् के तथाकथित सुखों की वास्तविकता से व्यक्ति परिचित हुआ, दूसरे अनेक कष्टों द्वारा अजित घन का सही उपयोग करना यह सीख गया । यात्रा प्रसग में हुए प्रेम व विवाह सम्बन्धों द्वारा उसके काम-पुरुषार्थं की भी साधना हो गई । अतः अब वह किसी भी समय अपने पुरुषार्थ को मोड़ देने में समर्थ हो गया, धर्म के प्रति उन्मुख होने में । यही इस युग के साहित्यकार का मूल्य-गत प्रतिपाद्य था । इस प्रकार प्राकृत अपभ्रंश साहित्य में उन सभी मूल्यों का समावेश हैं, जिन्हें भारतीय संस्कृति के शाश्वत मूल्य कहा जा सकता है । वे मूल्य विसी युग-विशेष के नहीं, अपितु प्रत्येक युग में जीवन के परिशोधन के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं । उनमें से कुछ मूल्यों पर यहाँ विस्तृत विचार प्रस्तुत है 122 सामाजिक मूल्य : भारतीय चिन्तन की दो शैलियाँ प्राकृत अपभ्रंश साहित्य में मिलती हैं । शुद्ध प्राध्यात्मिक चिन्तन, जो जीवन के परम लक्ष्य प्राप्ति में सहयोगी हैं और ऐसा नैतिक चिन्तन, जो परिवार, समाज एव मानवीय सम्बन्धो को आदर्श रूप प्रदान करता है । यह बात सत्य है कि प्रायः प्राकृत साहित्य निवृत्तिमूलक है, किन्तु वह भी उतना ही स्पष्ट है कि उसकी निवृत्ति का मार्ग प्रवृत्ति को जीकर गुजरा है । प्रवृत्ति-मूलक संस्कृति को तहस-नहस करके नहीं । यह एक ऐसा कारण है जिसके फलस्वरूप जैन साहित्य एवं उसमें प्रतिपादित धर्म प्रचार आदि भारतीय संस्कृति से अलग नहीं हो सका और न ही उसे शरण लेने विदेशों में भागना पड़ा । प्राकृत - अपभ्रंश साहित्य के सामाजिक जीवन-मूल्य लौकिक जीवन से उतने ही सम्प्रक्त हैं, जितने संस्कृत साहित्य अथवा अन्य साहित्य के मूल्य । जहाँ इस साहित्य में अध्यात्मवाद की गूंज है, वहाँ भौतिकवाद की स्वीकृति भी अपभ्रंश के दार्शनिक कवि सरहपाद की यह देहवादी स्वीकृति दृष्टव्य है ग्रतः एत्थ से सुरसिर सोवणाह एत्थु से गंगा - सायरू । वाराणस पाग एथु से चन्द- दिवानरू खेत पिठ, उपिठ, एथु मई भमिश्र समिट ठउ । देहातfरस तित्थ मई सुरगउ ण दिट ठउ ।। शरीर को तीर्थ मानकर चलने वाले इन कवियों ने नैसर्गिक जीवन जीने में रस लिया है, तब कहा है कि यह शरीर सभी अशुचियों का भण्डार है । अतः अनुभव के आधार पर इनका लेखन गतिशील हुआ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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