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पंचदश
ਕ साहित्य में जीवन - मूल्य
भारतीय साहित्य मानव-जीवन के किसी न किसी मूल्य से हमेशा जुड़ा रहा है । शायद इसीलिए, हजारों वर्ष पूर्व का साहित्य प्राज भी जीवन को प्रालोकित करने की क्षमता रखता है । संस्कृत-साहित्य की क्षमता इस क्षेत्र में जितनी समर्थ है, उतनी ही व्यापक उपयोगिता प्राकृत एव अपभ्रंश साहित्य की भी है । इस साहित्य के माध्यम से वह जन-मानस उभरकर सामने आया है, जिसमें लोक की सहज अनुभूतियाँ हैं तथा अध्यात्म के अभिनव प्रयोग । प्राकृत अपभ्रंश भाषाएं ही अपनी विविधता व अनेक रूपता के लिए प्रसिद्ध नहीं है, अपितु उनका साहित्य भी नित नए रूप धारण करता रहा है । अतः इस साहित्य में जीवन-मूल्य की खोज अध्यात्म के बदलते स्वरूप की पकड़ है, क्योकि जितने परिवर्तन आठवीं सदी में अध्यात्मविचारधारा में हुए, उतने सामाजिक और आर्थिक जीवन में भी ।
आठवीं शताब्दी का युग अपभ्रंश के आदिकवि स्वयम्भू एवं सिद्धकवि सरहपाद तथा प्राकृत के हरिभद्रसूरि, उद्योतनसूरि एवं महाकवि कौतूहल का युग था । इनकी रचनाओं से तत्कालीन जीवन का पूर्ण प्रतिनिधित्व होता है । इनके साहित्य में जीवनमूल्यों के प्रस्तुतीकरण की पृष्ठभूमि में कुछ विशेष प्रवृत्तियाँ कार्य करती रही हैं । उनके स्पष्टीकरण द्वारा तत्कालीन साहित्य के जीवन मूल्यों को भली-भाँति समझा जा सकेगा ।
इस युग के साहित्यकारों ने विषय, शिल्प और भाषा समन्वयबोध को अधिक जाग्रत किया है । जो बात वे कहना चाहते थे, तदनुसार ही कथानक और भाषा माध्यम को उन्होंने चुना है । इन कथाकारों ने मानव जीवन के विविध पहलुओं को गहराई से देखने-परखने की चेष्टा की है । अतः वे साहित्य को मात्र मनोरंजन का साधन न मानकर जीवन की सूक्ष्म संवेदनाओं, मनोविकारों प्रौर भावनाओं का विश्लेषरण करने वाला माध्यम मानते हैं । इसी दृष्टिकोण के कारण प्राकृत अपभ्रंश साहित्य उद्देश्य परक साहित्य कहा जा सकता है । यह शायद इस बात का प्रतिफल है कि इसके सर्जक स्वयं जीवन की सार्थकता के अन्वेषी थे । अतः उनके द्वारा लिखा गया साहित्य निरर्थक एवं उद्देश्य हीनता जैसे दोषों से मुक्त ही रहा ।
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