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जैन धर्म और जीवन-मूल्य पूर्ण रूप से इस युग में विकसित हो सके। दोनों के विकास और सजगता का ही परिणाम था कि यहां की कलाकृतियों में विदेशी प्रभाव प्रवेश नहीं कर सका।
पश्चिमी भारत की जन कला के अन्वेषकों एवं समीक्षकों का मत है कि मेवाड में हिन्दू राजाओं का शासन होने से यहां की जनकला पर सुलतानी प्रभाव प्रायः नहीं है । धार्मिक परम्पराओं को यहाँ सुरक्षा प्राप्त हुई है । यद्यपि 15 वीं शताब्दी में अनुकृति को अधिक बढ़ावा मिला है, फिर भी मौलिक सृजन के जो जो भी कलात्मक प्राधार हैं वे दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। मेवाड़ के सांस्कृतिक सद्भाव एवं शासकों की कलाप्रियता के कारण यहाँ पन्द्रहवीं शताब्दी में अच्छे मन्दिरों का निर्माण हो सका है। यहाँ के मन्दिरों में मारु-गुजर स्थापत्य की विशेषताओं की सुरक्षा हुई है। बाहर-भीतर के अलकरण की सम्पन्नता यहाँ के मन्दिरों की खास विशेषता है । इस काल के मन्दिरों के स्थापत्य को जेम्स फर्ग्युसन ने 'मध्यशैली' नाम दिया है।64 नागरशैली को जैन मंदिरों ने एक नया रूप दिया है । चौमुख मन्दिरों की शैली यह यहाँ की खास विशेषता है, जिसे सर्वतोभद्र प्रकार का विकास कहा जा सकता है ।65 इसका प्रमुख उदाहरण है- मेवाड़ का प्रसिद्ध राणकपुर जैन मन्दिर ।
मेवाड़ के शासकों ने 15 वीं शताब्दी में जिस स्थापत्य कला का निर्माण किया है, उसका परिचय एवं मूल्यांकन कई विद्वानों ने किया है। प्रसंगवश इस युग की जैनकला का परिचय भी विभिन्न ग्रन्थों में प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में कुछ निबन्ध भी विद्वानों ने लिखे हैं। प्रमुख रूप से राम वल्लभ सोमानी ने कुम्भायुगीन मेवाड़ की जैनकला का विभिन्न स्रोतों के माधार पर मूल्यांकन प्रस्तुत किया है ।66 उससे ज्ञात है कि चित्तौड़, कुम्भलगढ़, अचलगढ़, दिलवाड़ा, डूगरपुर, राणकपुर आदि स्थान जैनकला के प्रमुख केन्द्र रहे हैं। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों मान्यतानों की कलाकृतियां यहाँ बनती रही हैं। जानकारी के लिए इस युग की जैन कलाकृतियों का संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है । 1. चित्तौड़गढ़
जैनकला के लिए राजस्थान में चित्तौड़ प्राचीन समय से ही प्रमुख केन्द्र रहा है 167 15 वीं शताब्दी में यहाँ पर प्राचीन अवशेषों की सुरक्षा के साथ-साथ नये निर्माण भी किये गये हैं । यहाँ के निम्न प्रमुख मंदिर उल्लेखनीय हैं1. शृंगार चंवरी68..--इस शान्तिनाथ मंदिर का निर्माण 14 वीं शताब्दी में
हो चुका था। किन्तु राणा कुम्भा के खजान्ची शाह केल्हा के पुत्र बेलाक ने वि. सं. 1505 में इस मंदिर का पुनः निर्माण करवाया था। यह मंदिर पंचरथ प्रकार का है, जिसमें एक गर्भगृह तथा उत्तर और पश्चिम दिशा में संलग्न चतुष्कियाँ है । इस मंदिर के बाह य एवं भीतरी मूर्तिशिल्प अलंकृत
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