Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 115
________________ कुम्भाकालीन मेवाड़ में जैन धर्म 105 साहित्य : ___ महाराणा कुम्माकालीन मेवाड़ में जैनधर्म के विकास की जानकारी के लिए जन अभिलेखों के उपरान्त तत्कालीन जन साहित्य का विशेष महत्त्व है, अभिलेख एवं साहित्य दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं। इस युग में प्राकृत के मूल ग्रन्थों का प्रणयन प्रायः कम हो गया था। किन्तु प्राकृत ग्रन्थों पर टीकाएं आदि अधिक लिखी जा रही थीं। अपभ्रंश के ग्रन्थ भी राजस्थान एवं उसके पड़ोसी केन्द्रों पर लिखे जा रहे थे । संस्कृत भाषा का अच्छा प्रचार था । अतः इस युग में अधिकांश ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गये हैं। अपभ्रंश मिश्रित राजस्थानी एवं गुजराती के जन ग्रन्थ भी इस युग में मेवाड़ में लिखे गये हैं । मेवाड़ के जैन साहित्य के सम्बन्ध में विद्वानों ने कई फूटकर लेख आदि लिखे हैं 131 इस युग की इतिहास और संस्कृति की पुस्तकों में भी साहित्य की कुछ जानकारी प्राप्त होती है :32 उस सबके आधार पर यहाँ कुम्मा कालीन जैन साहित्य का संक्षिप्त मूल्यांकन प्रस्तुत करने का प्रयत्न है । (क) संस्कृत काव्य : पन्द्रहवीं शताब्दी में कई प्रमुख जन कवि हुए हैं। उनमें सोमसुन्दरसूरि मुनिसुन्दर, सोमदेव वाचक, माणिक्य सुन्दर गणि, प्रतिष्ठा सोम, चारित्ररत्नगरिण, जिनहर्ष गणि, ज्ञानहंसगरिण मादि प्रमुख हैं । इनके साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है1. सोमसुन्दरगणि :-सोमसुन्दरसरि तपागच्छ के समर्थ कवि थे । इनके जीवन के सम्बन्ध में जन मुनियों ने 2-3 ग्रन्थ लिखे हैं 133 उनमें प्रतिष्ठासोम का सोमसौभाग्य काव्य प्रसिद्ध है। दूसरा काव्य 15 वीं शताब्दी के सुमतिसाधु ने लिखा है । सोमसुन्दर सूरि को वि. सं. 1450 में राणकपुर में इनको वाचकपद प्राप्त हुआ था। उसके बाद ये दिलवाड़ा भी रहे । सोमसुन्दरसरि की रचनामों में कल्याणकस्तव, रत्नकोश, उपदेशबालावबोध, भाष्यत्रय अवचूरि प्रादि प्रमुख हैं 31 मनिसन्दर :-ये सोमसुन्दरसूरि के पट्ट शिष्य थे । इनको 'सहस्रावधानी' भी कहा गया है। ये संस्कृत के अच्छे विद्वान् थे। इन्होंने 'शान्तिकरस्तोत्र' दिलवाड़ा में लिखा था ।35 इनकी दूसरी रचना 'उपदेश रत्नाकर' भी प्राप्त है 136 इनके शिष्यों ने भी संस्कृत की अच्छी सेवा की है। मुनिसुन्दरसरि का अध्यात्मकल्पद्रम महत्त्वपूर्ण रचना है, जो संस्कृत एवं प्राकृत में लिखी गयी है।37 3. सोमदेव वाचक :-सोमसुन्दरसूरि के प्रभावशाली शिष्य सोमदेववाचक थे। महाराणा कुम्भा ने इन्हें 'कविराज' की उपाधि प्रदान की थी । गुरुगणरत्नाकर एवं सोमसौभाग्य काव्य में इनका विशेष उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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