Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 108
________________ 98 जैन धर्म और जीवन-मूल्य भावना द्वारा अहिंसा भाव को ही सघन करता है। अतः कहा जा सकता है महायानी आदर्शों में जो मंत्री और करुणा की प्रमुखता है, वह भी जैनधर्म और प्राचीन बौद्धधर्म के साथ उसकी घनिष्ठता के कारण है। तभी महायानी प्राचार्य अपनी प्राचीन परम्परा की शब्दावली में ही कहता है कि 'मुझे दूसरों का दुःख देखकर निजी दुःख की तरह ही उसे दूर करना चाहिए जैसे मेरे सत्व हैं, वैसे ही उनके सत्व है । अतः अपने सत्व की तरह मुझे उन पर भी अनुग्रह करना चाहिए । महायानी सम्प्रदाय में भगवान बुद्ध को पालौकिक स्वरूप प्रदान किया गया है। वे सभी प्राणियों के मुक्तिदाता हैं। किन्तु फिर भी उन्होंने बौद्ध-साधक को केवल श्रद्धा के सहारे अथवा किसी भाग्य या देवता के माध्यम से मुक्ति प्राप्त कर लेने का उपदेश नहीं दिया है। कर्मवाद का सिद्धांत यहाँ भी प्रमुखता लिए हुए है । बोधिसत्व प्राणी को मुक्त का मार्ग दिखाने का अनुग्रह तो उस पर कर सकते हैं किन्तु उसके कुशल, अकुशल कर्मों का परिणाम उसे भोगना ही होगा । ससार के दुःखों से उसे तभी छुटकारा मिलेगा, जब वह आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करेगा अर्थात् शील, समाधि और प्रज्ञा का उसमें पुरुषार्थ होगा। इस तरह दार्शनिक विचारधारा में महायानी सम्प्रदाय भले ही पर्याप्त विकसित हो गये हैं, किन्तु साधना और विनय के क्षेत्र में वे मूल से जुड़े हुए हैं । कमवाद की प्रधानता और व्यक्ति के पुरुषार्थ की प्रमुखता बौद्धधमं में जैनधर्म के समान ही प्रारम्भ से समायी हुई है । उसके स्वरूप में अन्तर हो सकता है, किन्तु उपयोगिता और महत्त्व में नहीं । मनुष्य-भव ही बौद्धधर्म एवं जैनधर्म की कम भूमि है । देवताओं को सुगति भी मनुष्य-जन्स धारण करने के बाद सम्भव है ।16 मनुष्य को पुरुषार्थ करने क लिए स्वतन्त्रता प्रदान करना श्रमण परम्परा की एक प्रमुख देन है । 'अत्तदीव' 'अत्तसरण' 'अत्ता हि अत्तनो नाथ' अादि भगवान बुद्ध के उद्गार मनुष्य की सामर्थ्य के द्योतक हैं । जेनधम में महावीर भी यही उद्घोष कर चुके है कि व्यक्ति ही सुख दुःख का कत्ता है और अपना शत्रु व मित्र स्वय हैं ।17 महायानी अादर्शों में पारमितानों का विशेष महत्त्व है । वस्तुतः प्रत्येक गुण जब अपनी चरम उत्कृष्ट सीमा पर पहुंच जाता है तब वह पारमिता बन जाता है । बौधिसत्व ऐसी कई पारमितामों से युक्त होते हैं तब उनका पूर्ण व्यक्तित्व खिलता है ।18 जैनधर्म में 11 प्रतिमाओं और 14 गुण-स्थानों की व्यवस्था इसी प्रकार व्यक्तित्व के क्रमशः निखार के लिए है .19 बौद्धधर्म में त्रिकाय का सिद्धान्त प्रचलित है। महायानी सम्प्रदाय का कथन है कि भगवान बुद्ध का भौतिक शरीर उनका रूपकाय है । उन्होंने जो उपदेश दिये वह उनका धमकाय है । यही उनका प्राध्यात्मिक शरीर है और भगवान बुद्ध की अलौकिकता तथा उनकी आनन्दमय अवस्था सम्भोगकाय है । भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार इसी काय में वे ही जगत् के परमेश्वर हैं । वस्तुतः विचार किया जाय तो व्यक्ति के अध्यात्मिक विकास की ये तीन सीढ़ियाँ हैं । जैनधर्म में इन्हें प्रात्मा के तीन प्रकारों में व्यक्त किया गया है--बहिरात्मा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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