Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 111
________________ चतुदर्श कभाकालीन मेवाड़ में जैनधर्म राजस्थान में जैनधर्म प्राचीन समय से ही व्याप्त रहा है। जैनधर्म के विकास के लिए मेवाड़ की भूमि अधिक उर्वरा प्रमाणित हुई है । मज्झमिका नगरी, नागदा, चित्तौड़, जालौर, भीनमाल आदि नगरों के इतिहास पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि पाठवीं शताब्दी तक मेवाड़ में जैनधर्म सभी क्षेत्रों में विकसित हो चुका था । पूर्व मध्ययुग के शासकों एवं मेवाड़ की जनता ने जैनधर्म के प्रति अपना अनुराग प्रगट किया है । यही कारण है कि इस वीर भूमि मेवाड़ में जैन साहित्य, दर्शन, कला और अहिंसा का पर्याप्त विकास हो सका है । विद्वानों ने मेवाड़ और जैनधर्म के सम्बन्ध में कई लेखों में प्रकाश डाला है। डॉ. के. सी. जैन एवं श्री रामवल्लम सोमानी2 ने इस सम्बन्ध में पुस्तकें भी लिखी हैं। पुरातत्व एवं साहित्य की प्राचीन सामग्री भी मेवाड़ में जैनधर्म के विकास की जानकारी प्रस्तुत करती है। इस सब प्रमारणों के उपयोग से यह स्पष्ट हो जाता है कि महाराणा कुम्भा के समय मेवाड़ में जो जैनधर्म विकसित हुआ उसके लिए एक सुदृढ़ अाधारभूमि प्रस्तुत थी। ___महाराणा कुम्भा के समय में राजस्थान में भाषा, साहित्य, कला एवं संगीत मादि की अच्छी प्रगति हुई है । धार्मिक सहिष्णुता इस युग की सबसे बड़ी विशेषता रही है। यही कारण है कि उस समय मेवाड़ में शैवधर्म, वैष्णव धर्म एवं जैनधर्म इन सभी का विकास हो सका है। कुम्भाकालीन मेवाड़ में जैनधर्म की जानकारी एवं मूल्यांकन हेतु महाराणा कुम्भा के पिता श्री मोकल एवं पुत्र श्री राणा रायमल के राज्यकाल को भी इस समीक्ष्य युग में सम्मिलित करना होगा। तभी ज्ञात हो सकेगा कि महाराणा कुम्भा ने अपने पिता से जैनधर्म के प्रति दृष्टिकोण की क्या विरासत प्राप्त की तथा अपने पुत्र को जैनधर्म की सेवा के क्या प्रादर्श सौंपे। अत: प्रस्तुत निबन्ध की समय-सीमा लगभग वि. सं. 1450 से वि. सं. 1560 तक रखी गयी है। इस तरह ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी में मेवाड़ में जैनधर्म की एक संक्षिप्त रूप रेखा प्रस्तुत की जा सकेगी। महाराणा कुम्भा का जैन धर्म के प्रति क्या योगदान रहा है, यह इससे स्पष्ट हो सकेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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