Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 103
________________ पर्यावरण-सन्तुलन और जैन धर्म 93 ने कहा कि कच्चे जामुन हम क्या कारेंगे? केवल पके जामुनों को ही पेड़ से तोड़ लेते हैं । छठे लकड़हारे ने सुझाव दिया कि तुम सब पेड़ के ऊपर ही क्यों देख रहे हो । जमीन पर इस पेड़ की पकी हुई इतनी जामुन पड़ी हैं कि हम सभी की भूख मिट जायेगी । हम इन्हीं को बौन लेते हैं ।' सौभाग्य से उसकी बात मान ली गयी। इन छहों व्यक्तियों के विचारों को छह रंग दिये गये हैं । प्रथम लकड़हारे के विचार सर्वनाश के द्योतक हैं अतः वह 'कृष्णलेश्या' वाला है। दूसरे से छठे तक के विचारों में क्रमशः सुधार हुप्रा है, सर्वकल्याण की भावना विकसित हुई है । अतः दूसरे को नी नलेश्या, तीसर को कागतलेश्या, चौथे को पद्मले स्या, पांचवें को पीतलेश्या एवं छठे लकड़हारे को शुक्ललेश्या वाला व्यक्ति माना गया है । काला, नीला, मटमैला, लाल, पीला और सफेद रंग क्रमशः विचारों की पवित्रता के द्योतक हैं । यदि प्राज का मानव जीवन मूल्यों के माध्यम से पद्मलेश्या तक भी पहुँच जाये तो भी विश्व की प्राकृतिक सम्पदा सुरक्षित हो जाएगो । लोगों की बुनियादी आवश्यकताएं पूरी हो जायेंगी। महात्मा गांधी ने ऐसे ही विचारों के लोगों को ध्यान में रखकर जीवन के अंतिम दिनों में कहा था--'धरती माता के पास हर एक की न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भरपूर सम्पदा है, लेकिन चन्द लोग की लोभ-लिप्सा को सन्तुष्ट करने के लिए कुछ नहीं है।' 8. साधुचर्या प्रकृति का सम्मान : जैन दर्शन की जीवन पद्धति में अहिंसा, अपरिग्रह, शाकाहार, अभय प्रादि के अतिरिक्त कुछ अन्य बातें भी इतनी महत्त्वपूर्ण हैं, जो पर्यावरण की शुद्धता में सहायक हो सकती हैं । जैन साधु जीवन भर पैदल चलते हैं। उनकी यह पद-यात्रा प्रकृति के साथ सीधा तादात्म्य स्थापित करती है । चतुर्मास में जैन साधु एक स्थान पर रुक कर प्रकृति के उल्लास का स्वागत करते हैं । उनका दृष्टिकोण होता है कि वर्षा ऋतु में हरियाली, पानी, वनस्पति सब अपने विकास पर हैं । असंख्य कीड़े मकोड़े भी अपनी विश्वयात्रा पर इस समय निकलते हैं। उन सबके संचरण में विकास में मनुष्य को चाहिए कि वह अपना गमन करके बाघा न पहुचाए । इस अवधि में वह कम से कम खाये और सादगी से रहे । वारतव में चतुर्मास सादगी की शिक्षा का त्योहार है। जैन साधना परम्परा में गृहस्थ एव साधु सभी प्रतिक्रमण और सामायिक की साधना करते हैं। प्रतिक्रमण का अर्थ है --अनधिकृत क्षेत्र से वापिस लौट पाना । मनुष्य का मन, विचार, क्रिया वहां से खींच ली जायं, जहाँ वे किसी की बाधा पहुंचा रही हों। किसी के स्वभाव को विभाव में बदल रही हों। इतना अभ्यास मानव यदि प्रति दिन करे तो वह कभी प्रदूषण का भागी नहीं हो सकता। कभी किसी के हक को वह नहीं छीन सकता । दूसरी क्रिया सामयिक की साधना है। व्यक्ति बाहर से अपने मन-वचन-कार्य को लौटाकर अपनी आत्मा के स्वभाव में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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