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पर्यावरण-सन्तुलन और जैन धर्म
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6. प्रात्मालोचन से शुद्धि :
प्रदूषण का अर्थ है किसी स्वाभाविक वस्तु में विकार प्रा जाना । पसली में मकली वस्तु का, तत्त्व का मिल जाना अथवा शुद्ध वस्तु का अशुद्ध हो जाना । मिलावट की यह प्रक्रिया शरीर में, प्रकृति में एवं प्रात्मा के स्वभाव में कर्मों के रजकरणों के द्वारा, दूषित वृत्तियों ( कषायों) के द्वारा निरन्तर होती रहती है । 'कषाय' जैनदर्शन का लाक्षणिक शब्द है । यही संसार-भ्रमण एवं कर्म-परम्परा का मूल कारण है। 'कषाय' का अर्थ ही है-मटमैला, अशुद्ध । इसको शुद्ध करना ही रत्नत्रय की साधना का उद्देश्य है। शुद्धिकरण की इस प्रक्रिया के विकास में जैन साधना-पद्धति में एक पालोचना-पाठ बहुत प्रचलित है, जिसके द्वारा श्रद्धालु श्रावक अपने द्वारा किये किये प्रदूषणों के प्रति स्वयं की मालोचना करता है और उन्हें आगे न करने की प्रतिज्ञा करता है
'करूं शुद्ध पालोचना, शुद्धिकरन के काज'
कवि जौहरीलाल ने इस आलोचना पाठ में जीवन में प्रमादवश जितने हिंसा, असत्य, चौरी, अब्रह्म, परिग्रह, क रता, लोभ आदि के अनुचित कार्य हो जाते हैं उनकी आलोचना की है और कहा है कि हम अपने स्वभाव को भूल कर विभाव का आचरण करते हैं इसलिए हम परम पद को नहीं पाते हैं। 'जतन' की स्वीकृति देते हुए कहा गया है
किय प्राहार निहार विहारा, इनमें नहिं 'जतन' विचारा । बिन देखी धरि उठाई, बिन सोधि वसत जु खाई ।।
इतनी सावधानी की चिन्ता यदि गृहस्थ जीवन में धार्मिक व्यक्ति करने लग जाये तो उसकी कथनी-करनी का अन्तर मिट जाय । वनस्पति की रक्षा की भावना उसके मन में है । किन्तु स्वार्थ और दयाहीनता के कारण उसने हरियाली को उजाड़ दिया । अतः अपने को वह अपराधी मानता है
हा हा मैं प्रदयाचारी, बहु हरितकाय जो विदारी । जल-प्रदूषण का भागीदार होने का उसे प्राभास है । वह कहता है
जलमल मोरिन गिरवायौ, कृमि-कल बहु घात करायौ । नवियन बिच चीर धुवाये ,कोसन के जीव मराये ।।
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