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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
आलोचना पाठ के मात्र इस पद को यदि आज उद्योग के क्षेत्र में पालन करने की अनिवार्यता हो जाय तो जल-प्रदूषण का अधिकांश भाग स्वमेव रुक जायेगा । जो धार्मिक व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में जलचर जीवों को नक्षा की बात सोचता है वह अपने उद्योग-धन्धे में उनके विनाश की बात कैसे सोचेगा ? द्रव्य का अर्जन करना ही जीवन का लक्ष्य नहीं है । तृष्णा की खाई को कौन भर सका है ? अतः करुणा के मूल्य को प्रतिष्ठा देना ही सच्चे मानव का उद्देश्य होना चाहिए । इस आलोचनापाठ का कवि अन्त में यही कामना करता है कि यदि मैं यत्नपूर्वक अपना जीवन चलाने लग जाऊँ और 'जियो और जीने दो' के सिद्धान्त को व्यवहार में अपना लू तो ससार के सभी प्राणी सुखी हो सकते हैं
सब जीवन के सुख बढ़ , आनन्दमंगल होय । 7. मूल कारण और निवारण :
धर्म की परिभाषा में जो वस्तु का स्वगाव, आत्मा के क्षमा आदि गुण एवं रत्नत्रय की प्राराधना का निरूपण किया गया है उसको संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए कह दिया गया कि--'जीवाणं रक्खण धम्मो'। धर्म का यह सूत्र पर्यावरण-शुद्धता के लिए बहुत उपयोगी है । क्योंकि गहरायी से देखें तो पर्यावरण को प्रदूषित करने में दो ही मूल कारण हैं--तृष्णा और हिंसा। इनके पर्यायवाची हैं--परिग्रह और क्रूरता । इनमें प्रथम साध्य है और दूसरा साधन । प्रापचर्य की बात तो यह है कि हम हिंसा-निवारण की तो बात करते हैं, अान्दोलन चलाते हैं, प्रतिदिन पूजनप्रार्थना में अहिंसा की साधना का पाठ दुहराते हैं। किन्तु परि ग्रह की वृत्ति को गले लगाते हैं। परिग्रही को सम्मान देते हैं । हिंसा-निवारण या प्रदूषण - शोधन मे उस धन का उपयोग करना चाहते हैं, करते हैं, जो हिंसा और प्रदूषण के माध्यम से ही एकत्र किया गया है । इसी आत्मघाती विपरीत प्रक्रिया के कारण हिंसा या प्रदूषण घटने की बजाय दिनोंदिन बढ़ा है।
संतोषधन की बात हजारों वर्ष पूर्व भारतीय मनीषियों ने प्रतिपादित की थी । जनदर्शन में एक 'षट्लेश्या' का सिद्धान्त है । मनुष्य का चिन्तन जैसा होता है, वैसा ही वह कार्य करता है । एक ही प्रकार के कार्य को भिन्न-भिन्न वृत्ति वाले लोग अलग-अलग ढंग से सम्पन्न करना चाहते हैं । दृष्टांत दिया गया है कि छह लकड़हारे लकड़ी काटने जंगल में गये । दोपहर में जब उन्हें भूख लगी तो वे किसी फल के पेड़ को खोजने निकले । उन्हें एक जामुन का पेड़ दिखा जो पके फलों से लदा हुआ था । प्रथम लकड़हारे ने अपनी कुल्हाड़ी से पूरे पेड़ को काटना चाहा ताकि बाद में पाराम से बैठकर जामुन खाये जा सकें । दूसरे ने एक मोटी शाखा काटना ही पर्याप्त समझा। तीसरे लकड़हारे ने सोचा शाखा काटने से क्या फायदा ? छोटी टहनियाँ काट लेना ही पर्याप्त है । चौथे ने टहनियों को नुकसान पहुंचाना ठीक नहीं समझा। उसने केवल जामुन के गुच्छों को काटना ही उचित माना। तब पांचवें लकडहारे
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