Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 99
________________ पर्यावरण-सन्तुलन और जैन धर्म 89 नुकसान पहुंचा सकता है तब मानव स्वयं निर्भय बन जायेगा, आत्मनिर्भर बन जायेगा। फिर उसे वस्तुओं के ढेर और शस्त्रों के संग्रह को क्या प्रावश्यकता ? जो व्यक्ति अपनी आत्मा के स्वभाव को जान लेगा कि वह दयालु है जीवन्त है, निर्भय है तब वह यह भी जान जायेगा कि विश्व के सभी प्राणियों का स्वभाव यही है। तब अपनी आत्मा जैसे कीमती एवं उपयोगी प्राणियों की हत्या, दमन, शोषण करने की क्या आवश्यकता है। इस समता के भाव से ही क्रूरता मिट सकती है । प्रात्मा के इसी स्वभाव को जानने के लिए क्षमा, मृदुता, सरलता, पवित्रता, सत्य, संयम, तप, त्याग निस्पृहीबृत्ति, ब्रह्मचर्य इन दस प्रकार के आत्मिक गुणों को जानने को धर्म कहा गया है। इन गुणों की साधना से प्रात्मा और जगत् के वास्तविक स्वभाव के दर्शन हो सकते हैं । इसी स्वभावरूपी चादर के सम्बन्ध में संत कबीर ने कहा हैं - या चादर को सुर-नर-मुनि मोढ़ी प्रोढ़ के मैली कोनी। दास कबीर जतन कर प्रोढी ज्यों की त्यों घर दीनी ।। 5. जतन की चादर : विश्व के चेतन, अचेतन सभी पदार्थों के आवरण से देवता, मनुष्य, ज्ञानीजन सभी व्याप्त रहते हैं । पर्यावरण की चादर उन्हें ढके रहती है । किन्तु अज्ञानी जन, अपने स्वभाव को न जानने वाले अधार्मिक, उस प्रकृति की चादर को मैली कर देते हैं । अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए पर्यावरण को दूषित कर देते हैं। किन्तु कबीर जसे स्वभाव को जानने वाले धार्मिक संसार के सभी पदार्थों के साथ जतन (यत्नपूर्वक) का व्यवहार करते हैं। न अपने स्वभाव को बदलने देते हैं और न ही पर्यावरण और प्रकृति के स्वभाव में हस्तक्षेप करते हैं। प्रकृति के संतुलन को ज्यों का त्यों बनाये रखना ही परमात्मा की प्राप्ति है। तभी साधक कह सकता है-'ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया'। अपने स्वभाव में लीन होना ही स्वस्थ होना है । जब पर्यावरण स्वस्थ होगा तब प्राणियों का जीवन स्वस्थ होगा । स्वस्थ जीवन ही धर्म-साधना का प्राधार है। प्रतः स्वभावरूपी धर्म पर्यावरण-शोधन का मूलभूत उपाय है, साधन है तो प्रात्म-साक्षात्कार रूपी धर्म विशुद्ध पर्यावरण का साध्य है, उद्देश्य है । कबीर ने जिसे 'जतन' कहा है, जनदर्शन के चिंतकों ने हजारों वर्ष पूर्व उसे यत्नाचार-धर्म के रूप में प्रतिपादित कर दिया था। उनका उद्घोष था कि संसार में चारों प्रोर इतने प्राणी, जीवन्त प्रकृति भरी हुई है कि मनुष्य जीवन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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