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पर्यावरण सन्तुलन और जैन धर्म
दूषित हो गयी कि सांस लेना दूभर हो गया है। धरती के प्रदूषण ने भूमि की उर्वरक शक्ति को छीन लिया है। कोट-नाशक दवाओं ने प्राणियों के स्वभाव बदल दिये हैं । उद्योगों के धुए ने आकाश को मैला कर दिया एवं जल में जहर घोल दिया है। इन सब प्रदूषणों ने व्यक्ति के हृदय, मन और चरित्र को बदल दिया है । प्रतः प्रव परिवर्तन की प्रक्रिया धर्म के खजाने से ही आ सकती है। मन, वचन, कर्म को दूषण से बचाना होगा तब बाहरी प्रदूषण रुकेगा । मनुष्य जब तक अपने स्वभाव में नहीं लौटता और प्रकृति को स्वाभाविक नहीं रहने देता, तब तक प्रदूषण की समस्या का हल नहीं मिलेगा। 3. बहु-प्रायामी धर्म :
पर्यावरण के साथ धर्म के सम्बन्ध को स्थापित करने के लिए धर्म के वास्तविक स्वरूप को जानना होगा, जो प्राणीमात्र के लिए कल्याणकारी हो । वैदिक युग के साहित्य से ज्ञात होता है कि धर्म का जन्म प्रकृति से ही हुआ है। प्रकृति शक्तियों को अपने से श्रेष्ठ मानकर मानव ने उन्हें शृद्धा, उपहार एवं पूजा देना प्रारम्भ किया । वहीं से वह प्रात्मशक्ति को पहिचानने के प्रयत्न में लगा। प्रकृति, शरीर, प्रात्मा एवं परमात्मा इस क्रमिक ज्ञाम से धर्म का स्वरूप विकसित हुआ। भारतीय परम्परा में धर्म जीवन-यापन की एक प्रणाली है, केवल बौद्धिक विकास नहीं है । अत: जीवन का धारक होना धर्म की पहली कसौटी है । चूकि जीवन एवं प्राण सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी में भी विद्यमान हैं । प्रतः उन सबकी रक्षा करने वाली जो प्रकृति है, वही धर्म है। महाभारत के कर्णपर्व में कहा गया है कि समस्त प्रजा का जिससे संरक्षण हो वह धर्म है । यह प्रजा पूरे विश्व में व्याप्त है। अतः विश्व को जो धारण करता है, उसके अस्तित्व को सुरक्षित करने में सहायक है, वह धर्म है-'धरति विश्वं इति धर्म' : महाभारत की यह उक्ति बड़ी सार्थक है। महर्षि कणाद ने धर्म के विधायक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि धर्म उन्नति और उत्कर्ष को प्रदान करने वाला है- 'यतोऽभ्युदय निःश्रेयससिद्धि स धर्मः' । उन्नति और उत्कर्ष का मार्ग स्पष्ट
करते हुए धर्म के अन्तर्गत शृद्धा, मैत्री, दया, संतोष, सत्य क्षमा आदि सद्गुणों के विकाम को भी सम्मिलित किया गया है ।
धमं के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए जैन आगमों में एक महत्त्व र्ण गाथा कही गयी है
धम्मो वत्थुसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो ।
रयणतय च धम्मा, जीवाणंरक्खरण धम्मो ।। वस्तु का स्वभाव धर्म है, क्षमा, मार्दव, आर्जव बादि दस प्रात्मा के भाव धर्म हैं, रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र) धर्म है तथा जीवों का रक्षण करना धर्म है। धर्म की यह परिभाषा जीवन के विभिन्न पक्षों को समुन्नत करने
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