Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 96
________________ 86 जैन धर्म और जीवन-मूल्य युग तक पूर्णरूपेण स्वीकृत रही है। तभी जैन आगमों में कहा गया है-'जो एगं जाणइ सो सव्व जाणइ' जिसने एक प्रकृत्ति (स्वभाव) को जान लिया उसने सारे विश्व को जान लिया । प्रकृति और मनुष्य के सम्बन्ध को प्राकृत आगमों में सूक्ष्मता के साथ प्रतिपादन किया गया है । डॉ. जे. सी. सिकदर ने जैन ग्रन्यों में प्राप्त वनस्पतिशास्त्र का अध्ययन प्रस्तुत किया है । आचारांग में वनस्पति और मनुष्य की सूक्ष्म तुलना करते हुए कहा गया है कि दोनों का जन्म होता है, वृद्धि होती है, चेतनता है, काटने में म्लानता पाती है । प्राहार-ग्रहण करने की प्रक्रिया दोनों की समान है । इसी तरह की अनेक अवस्थाएं वनस्पति और मनुष्य में समान हैं । अतः वनस्पति भी मनुष्य से कम मूल्यवान नहीं है। वनस्पति और वृक्ष मानव जीवन के मूलाधार हैं । उनसे वह जीवन की सभी मावश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। इसी सत्य का प्रतिपादन कल्पवृक्ष की अवधारणा से होता है । कत्मवृक्ष की मान्यता का प्राधार है कि प्रकृति मनुष्य को जीवन देने वाली है। इस सत्य का उद्घाटन विश्व में पाये जाने वाले भनेक उपयोगी वृक्ष प्राज भी कर रहे हैं। इन्दू टिकेकर की सम्पादित पुस्तिका 'पानी और पेड़ों में जीवन' इस विषय में विशेष प्रकाश डालती है। 'द सीक्रेट लाइफ आफ प्लान्टस' के लेखकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य से भी सूक्ष्म तीव्र संवेदशीलता पौधों के पास है। उसे विकसित करने की मावश्यककता है। अंक गणित करने वाला वृक्ष, दूध देने वाला 'काळ ट्री' वृक्ष, डीजल-ट्री, गैस-ट्री अाज भनेक नाम ऐसे पौधों को दिये गये हैं, जो मनुष्य की हर आवश्यकता की पूर्ति कर सकते हैं। 2. प्रदूषण-सबकी समस्या : ___ आज का विश्व तीन प्रमुख समस्यानों से जूझ रहा है। जो देश विकसित है, जिन्होंने वस्तुनों के संग्रह और यन्त्रों के निर्माण को ही विकास का पर्याय माना है, वे युद्ध की समस्या से त्रस्त हैं । क्योंकि विकसित देशों के पास अब विकास करने के लिए कुछ बचा नहीं है। उन्होंने अपने सब कच्चे माल का दोहन कर लिया है । अतः उनकी आपसी प्रतिस्पर्धा उन्हें युद्ध का चिन्तन दे रही है। विकासशील देशों ने अपने विकास का पैमाना विकसित देशों की तथाकथित समृद्धि को मान रखा है। अतः वे अपने देशों की जनसंख्या वृद्धि, गरीबी और भूख की समस्या के हल के लिए प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। कृत्रिम साधनों से तुरन्त धनी देश बनने के सपने विकासशील देश देख रहे हैं । कृषि यब उनके लिए संस्कृति नहीं, व्यापार हो गयी है । किन्तु तीसरी समस्या सारे विश्व की समस्या है । वह है-प्रदूषण, जिससे सबने मिलकर पैदा किया है। भोगवादी संस्कृति ने प्रदूषण को जन्म दिया है। प्रकृति को वस्तु मानने से हमने उसका दुरुपयोग किया। उसके स्वाभाविक सतुलन को बिगाड़ दिया : अतः प्रब जल का प्रदूषण हमारे प्राण ले रहा है । वायु इतनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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