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द्वादश
पर्यावरण- सन्तुलन और जैनधर्म
1. मनुष्य और प्रकृति :
मनुष्य के जीवन को जो चारों तरफ से घेरे हुए है उस वन सम्पदा, पशुसम्पदा, खनिज सम्पदा, जल-समूह एवं वायुमण्डल के समन्वित भावररण का नाम हैपर्यावरण | इसे इस युग में नया नाम दिया गया है- परिस्थिति विज्ञान ( इकालाजी ) व्यक्ति जब अपने को केन्द्र में रखकर पंचभूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और श्राकाश के सम्बन्ध में अध्ययन करता है तो वह इन्हें पर्यावरण के नाम से अभिहित करता है । किन्तु जब भौतिकविज्ञान एवं भौगोलिक दृष्टि से सम्पूर्ण इकाई का विवेचन करने की अपेक्षा हो तो यह सब प्रकृति के नाम से जाना जाता है । वस्तुतः सम्पूर्ण प्रकृति और मनुष्य के सम्बन्धों का अध्ययन करना ही पर्यावरण का क्षेत्र है । इस पर्यावरण की शुद्धता और स्वस्थता पर ही मनुष्य का अस्तित्व एवं विकास निर्भर है । इसीलिए मनुष्य अपने लाभ के लिए ही सही पर्यावरण को शुद्ध रखने की दिशा में अब चिंतनशील हुआ है ।
मनुष्य और प्रकृति का सम्बन्ध मनुष्य के प्रारम्भिक विकास के साथ जुड़ा हुआ है । अरण्य संस्कृति से ही इस देश का विकाश पनपा है । जल से वनस्पति, वनस्पति से वन और वनों से आदि मानव ने सभ्यता के कई चरण आगे बढ़ाये हैं । वनवासी मानव ने प्रारम्भ से ही प्रकृति के विभिन्न उपकरणों को अपने ऊपर वात्सल्य एवं सुविधाएं देते हुए देखा है । प्रत: वह प्रकृति का आभार प्रारम्भ से ही मानता रहा है । उसका उपासक बनकर मानव ने प्रकृति को शक्ति और प्रेरण का स्रोत माना है । वैदिक ऋषि पूरी सृष्टि को प्रेम और मित्रता की दृष्टि से देखते रहे हैं । उस वनवासी सभ्यता में मानव और प्रकृति के विभिन्न रूप एक ही परिवार के भंग रहे हैं। छान्दोग्य उपनिषद में कहा गया है कि एक को जान लेने से सबको जाना जा सकता है- 'एकेन विज्ञानेन सर्वदूदं विज्ञानं भवति' । यह 'एक' प्रात्म रूपी परम तत्त्व भी हो सकता है और प्रकृति भी । दोनों के संवेदन और अन्तर्रहस्य में कोई अन्तर नहीं है । मनुष्य और प्रकृति की तादात्म्यवृत्ति महावीर और बुद्ध के
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