Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 61
________________ अहिंसा : स्वरूप एवं प्रयोग मूलाचार ग्रन्थ में समाचार की महत्ता की बतलाते हुए लिखा है समदा समाचारो सम्माचारी समो वा प्राचारो । सव्वेंस हिंसमा सामाचारो दु श्राचारो ॥ - गा० 123 श्रतएव स्पष्ट है कि अपने देश की गौरवपूर्ण परम्पराठों के अनुकूल विश्वशान्ति के लिए समताचार अहिंसा की साधना अत्यावश्यक है । आज की परिवर्तित होती हुई परिस्थितियों और जीवन मूल्यों के अनुसार समाज और समूह के संघर्ष की समाप्ति का एक मात्र उपाय श्रहिंसाचरण ही है । 51 अहिसा के विषय में जैन संस्कृति पग-पग पर सन्देश देती हुई अग्रसर होती है । जैन संस्कृति के वरिष्ठ विधायकों के अन्तःकरण में समूचे विश्व को ही नहीं, प्राणीमात्र को सुखी देखने की लालसा थी । यह उनके अन्तःकरण की पुकार थी । गहन अनुभूति की प्रमिव्यक्ति । यह अनुभूति शुद्ध प्रेम की अनुभूति थी, रागमुक्त प्रेम की । प्रेम का यही रूप सार्वभौमिक होता है । यह एक के प्रति नहीं, समस्त के प्रति होता है । तभी प्राणीमात्र का स्पन्दन अपनी प्रात्मा में स्पन्दन में सुख भी होता है, अपार दुःख भी । और तभी उस अन्तराल की गहराइयों से करुणा फूट पड़ती है । व्यक्ति समष्टि के रूप में दुख निवारण की बात सोचने लगता है । की पृष्ठभूमि है । हिंसा की मूल भावना प्राणिमात्र को जीने का अधिकार प्रदान करती है । अपने आप में जीना कोई जीवन है ? वह तो एक मशीनी जीवन है । जो अपना होकर नहीं रहता, वास्तव में वही सबका होकर जीता है। जैन संस्कृति के नियामकों का हृदय इसी भावना से अनुप्राणित था । इसलिए उन्होंने समवेत स्वर में कहा - सब जीव संसार में जीना चाहते हैं । मरना कोई नहीं चाहता | क्योंकि एक गन्दगी के कीड़े और स्वर्ग के अधिपति - इन्द्र दोनों के हृदय में श्राकांक्षा और मृत्यु का भय समान है । 2 अतः सबको अपना जीवन इसीलिए सोते-उठते, चलते-फिरते तथा छोटे-बड़े प्रत्येक कार्य को भावना हर व्यक्ति की होनी चाहिए कि जब मेरी आत्मा सुख चाहती है तो दूसरों को भी सुख भोगने का अधिकार है । जब मुझे दुख प्यारा नहीं है तो संसार के अन्य जीवों को कहाँ से प्यारा होगा ? 4 अतः स्वानुभूति के आधार पर हिंसात्मक प्रवृत्तियों से हमेशा बचकर रहना चाहिए ।' जीवन की प्यारा है । 3 करते हुए यह Jain Education International सुनाई पड़ता है । इस अपार दुःख के प्रति व्यष्टि से निकलकर यही अहिसा के जन्म कितनी उदात्त भावना है उन महामानवों की । मानवता यहाँ चर्मोत्कर्ष पर पहुँच जाती है । जियो और जीने दो, यह अहिंसा का स्वर्णिम सूत्र उसी सर्वभूतदया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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