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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
यह करो कि उसका दुबारा फिर हाथ न उठे । अहिंसा सिर्फ अाक्रमणात्मक हिसा का विरोध करती है, रक्षात्मक हिसा का त्याग नहीं ।
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जैनागमों में एक अहिसक गृहस्थ के लिए यह विधान भी है कि यदि उसके धर्म, जाति, व देश पर कोई संकट श्रा पड़ा हो तो उसे चाहिए कि वह तन्त्र, मन्त्र, बल, सैन्य आदि शक्तियों द्वारा उसे दूर करने का प्रयत्न करे । एक देशवासी का राष्ट्र- रक्षा के सिवाय श्रोर क्या धर्म हो सकता है ? अतः यदि युद्ध अनिवार्य हो तो उससे विमुख होना अहिंसा नहीं, कायरता है । ऐसे युद्ध में रत होकर अहिंसक अपना कर्तव्य ही करता है । क्योंकि हर प्राणी को जब स्वतन्त्र जीने का अधिकार है तो उसमें बाघा देनेवाला क्षस्य नहीं कहा जा सकता । भले वह अपना पुत्र हो या शत्र ु हो । जंनाचार्य दोषों के अनुसार दोनों को दण्ड देने का विधान करते हैं 128 प्रतः प्रहिंसा का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें कोई विरोध उपस्थित नहीं होता । उससे कायरता नहीं, निर्भयता का स्रोत प्रवाहित होता है ।
हिंसा की उपलब्धियां :
जैन साहित्य व धर्म में अहिंसा के विविध रूपों के साथ एक बात भी देखने को मिलती है कि हिंसा का मूल स्रोत खान-पान की शुद्धि की ओर अधिक प्रभावित हुआ है। हिंसा से बचने के लिए खान-पान में संयम रखने को अधिक प्रेरित किया गया है उतना राग, द्वेष, काम, क्रोध, जो मावहिंसा के ही रूपान्तर हैं, के विषय में नहीं । इसके मूल में शायद यही भावना रही हो कि यदि व्यक्ति का प्राचार-व्यवहार स्वच्छ श्रौर संयत होगा तो उसकी आत्मा एवं भावना पवित्र रहेगी । किन्तु ऐसा हुआ बहुत कम मात्रा में है । प्राज श्रहिंसा के पुजारियों जनों के खान-पान में जितनी शुद्धि दिखाई देती है, मन में उतनी पवित्रता और व्यवहार में वैसी अहिंसा के दर्शन नहीं होते । अतः यदि व्यक्ति का प्रन्तस् पवित्र हो, सरल हो तो उसके व्यवहार व खान-पान में पवित्रता स्वयं अपने श्राप श्रा जायेगी । जिसका अन्तर प्रकाशित हो, उसके बाहर अंधेरा टिकेगा कैसे ?
अहिंसा के प्रतिचारों में जो पशुनों के छेदन श्रौर ताड़न की बात कही गई है वह नया तथ्य उपस्थित करती है । वह यह कि, जैनाचार्यों का हृदय मूक पशुओं की वेदना से अधिक अनुप्राणित था । यदि ऐसा न होता तो वे अहिंसा के अतिचारों में खान-पान की त्रुटियों को गिना देते । जबकि उन्होंने प्राणीमात्र के कल्याण की बात कही है । यही भावना प्रागे चल कर बंदिक यज्ञों की हिंसा का डटकर विरोध करती है । प्राणीमात्र को प्रभय प्रदान करती है । जैन संस्कृति के वरिष्ठ विधायकों ने उद्घोष किया- यदि सचमुच, तुम निर्भय रहना चाहते हो, तो दूसरों को तुम भी प्रभय देने वाले बनो, निर्भय बनाम्रो । में चार दिन की जिन्दगी पाकर क्यों हिंसा में डूबे हो ?30
इस अनित्यु नश्वर संसार
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