Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 80
________________ दशम कर्म एवं पुरुषार्थ जैन दर्शन में कर्म स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में स्वीकृत है । कर्म अनन्त परमाणुयों स्कन्ध हैं । वे प्राणियों को योग और कषाय की प्रवृत्तियों द्वारा ग्रात्मा के साथ बंध जाते हैं तथा यथा समय जीव को अच्छा-बुरा फल प्रदान करते हैं । जैन दर्शन के प्राचीन ग्रन्थों में कर्मसिद्धान्त का विस्तार से सूक्ष्म विवेचन है । 1 भगवती सूत्र में भगवान् महावीर और गौतम के बीच हुए प्रश्नोत्तरों में कर्मसिद्धान्त को कहा गया है । प्रमाद और योग कर्म-बन्धन के कारण माने गए हैं। 2 ठाणांग एवं प्रज्ञापना श्रादि में कषायों के द्वारा कर्मबन्ध की बात कही गई है । कषायप्राभृत श्रादि कर्मग्रन्थों में कर्म सिद्धान्त पर कई दृष्टियों से विचार किया गया है । उत्तरकालीन प्राकृत व संस्कृत साहित्य में जैन दर्शन के कर्म विषयक विभिन्न पहलुनों का विवेचन किया गया है । प्राकृत साहित्य में प्राप्त इस विवेचन में कहा गया है कि विश्व की विचित्रता एवं प्राणियों की हीनता एवं उच्चता कर्मों के कारण ही होती है । व्यक्ति को अपने अच्छे-बुरे कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है । जीव स्वयं के उपार्जित कर्मजाल में श्राबद्ध होता है । कृत कर्मों के भोगे बिना उसकी मुक्ति नहीं है । यथा सत्यमेव कहि गाइ, नो तस्स म च्चेज्जऽपुट्ठयं ।" उत्तराध्ययन सूत्र में "कडाण कम्माण न मक्ख श्रत्थि " ( 4 / 3 ) श्रादि के द्वारा इसी का समर्थन किया गया है । विशेषावश्यकभाष्य में यही बात दूसरे शब्दों में कही गई है कि जीव कर्म-ग्रहण करने में स्वतन्त्र है और उसका फल भोगने में परतंत्र | जैसे कोई व्यक्ति पेड़ पर चढ़ने में स्वतन्त्र हैं किन्तु प्रमादवश वृक्ष से गिर पड़ने में परतन्त्र है । यथा — सूत्रकृतांग 1. 2, 1 4 कम्म चिरांति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परवसा होन्ति । रुक्खं दुरुह सवसो, विगलसपरवसो तत्तो ।। 1-3 | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140