Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 85
________________ कर्म एवं पुरुषार्थ 75 दिया । तब राजा की समझ में आया कि व्यक्ति की सद्प्रवृत्तियों के पुरुषार्थ उसके जीवन को बदल सकते हैं। अन्त में राजा और मन्त्री दोनों जैन धर्म में दक्षिज हो गये। 21 इसी ग्रन्थ में समुदयात्रा प्रादि की कथाएं भी हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि संकट के समय भी साहसी यात्री अपना पुरुषार्थ नहीं त्यागते थे । जहाज भग्न होने पर समुद्र पार करने का भी प्रयत्न करते थे। अनेक कठिनाइयों को पार कर भी वणिकपुत्र सम्पत्ति का अजंन करते थे । उत्तराध्ययनटीका (नेमीचन्द्र) में एक कथा है, जिसमें राजकुमार मन्त्रीपुत्र और वरिणकपुत्र अपने-अपने पुरुषार्थ का परीक्षण करके बतलाते हैं 122 दशवकालिक चूर्णी में चार मित्रों की कथा मे पुरुषार्थों की श्रेष्ठता सिद्ध की गयी है । 23 वसुदेवहिण्डी ये अर्थ और काम पुरुषार्थ की अनेक कथोपकथाएं हैं। अर्थोपार्जन पर ही लौकिक सुख प्राधारित है। अतः इस ग्रन्थ की एक कथा में चारुदत्त दरिद्रता को दूर करने के लिए अंतिम क्षण तक पुरुषार्थ करना नहीं छोड़ता। 'उच्छाहे सिरि वसति' इस सिद्धान्त का पालन करता है ।24 समराईच्चकहा में लोकिक और पारमार्थिक पुरुषार्थ की अनेक कथाएं हैं।25 उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला में एक ओर जहाँ कर्मफल का प्रतिपादन किया है, वहां चंडसोम आदि की कथानों द्वारा यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पापी से पापी व्यक्ति भी यदि सद्गति में लग जाए तो वह सुख-समृद्धि के साथ जीवन के अन्तिम लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकता है। मायादित्य की कथा में कहा गया है कि लोक में धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों में से जिसके एक भी नहीं है उसका जीवन जड़वत् है । अतः अर्थ का उपार्जन करो जिससे शेष पुरुषार्थों की सिद्धि हो (कुव. 58. 13-15)। सागरदत्त की कथा से ज्ञात होता है कि बाप-दादानों की सम्पत्ति से परोपकार करना व्यर्थ है। जो अपने पुरुषार्थ से अजित धन का दान करता है वही प्रशंसा का पात्र है, बाकी सब चोर हैं जो देई धरणं दुह-सय-समिज्जयं प्रत्तणो भय-बलेण । सो किर पसंसणिज्जो इयरो चोरो विय वराम्रो ।। कुव. 103-23 ।। इसी तरह इस ग्रन्थ में धनदेव की कथा है। वह अपने मित्र भद्रश्रेष्ठी को प्रेरणा देकर व्यापार करने के लिए रत्नदीप ले जाना चाहता है । भद्रश्रेष्ठी इसलिए वहाँ नहीं जाना चाहता क्योंकि वह सात बार जहाज मग्न हो जाने से निराश हो चुका था। तब धनदत्त उसे समझाता है कि "पुरुषार्थ-हीन होने से तो लक्ष्मी विष्ण को भी छोड़ देती है और जो पुरुषार्थी होता है उसी पर वह दृष्टिपात करती हैं । अतः तुम पुनः साहस करो। व्यक्ति के लगातार प्रयत्न करने पर ही भाग्य को बदला जा सकता।' प्राकृत के अन्य कथा-ग्रन्थों में भी इस प्रकार की पुरुषार्थ सम्बन्धी कथाएं देखी जा सकती हैं । श्रीपाल कथा कर्म और पुरुषार्थ के अन्तर्द्वन्द्व का स्पष्ट उदाहरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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