Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 86
________________ 76 जैन धर्म और जीन-मूल्य है । मैना सुन्दरी अपने पुरुषार्थ के बल पर दरिद्र एवम कोढ़ी पति को स्वस्थ कर पुनः सम्पत्तिशाली बना देती है। प्राकृत के ग्रन्थों में इस विषयक एक बहुत रोचक कथा प्राप्त है। राजा भोज के दरबार में एक भाग्यवादी एवं पुरुषार्थी व्यक्ति उपस्थित हुा । भाग्यवादी ने कहा कि सब कुछ भाग्य से होता है, पुरुषार्थ व्यथं है । पुरुषार्थी ने कहा-प्रयत्न करने से ही सब कुछ प्राप्त होता है, भाग्य के भरोसे बैठे रहने से नहीं। राजा ने कालिदास नामक मन्त्री को उनका विवाद निपटाने को कहा । कालिदास ने उन दोनों के हाथ बांधकर इन्हें एक अंधेरे कमर में बन्द कर दिया और कहा कि आप लोग अपने-अपने सिद्धान्त को अपना कर बाहर आ जाना । भाग्यवादी निष्क्रिय होकर कमरे के एक कोने में बैठा रहा। पुरुषार्थी तीन दिन तक कमरे से निकलने का द्वार खोजता रहा। अन्त में थक कर वह एक स्थान पर गिर पड़ा । जहाँ उसके हाथ थे वहाँ चूहे का बिल था। अत: उसके हाथ का बन्धन चूहे ने काट दिया। दूसरे दिन वह किसी प्रकार दरवाजा तोड़कर बाहर आ गया। बाद में वह भाग्यवादी को भी निकाल लाया। और कहने लगा उद्यम के फल को जानकर यावत् जीवन उसे नहीं छोड़ना चाहिए । पुरुषार्थ फलदायी होता है ।27 उज्जमस्स फलं नच्चा विउसदुगनायगे। जावज्जीवं न छड डेज्जा उज्जम फलदायगं ।। चिन्तनीय प्रश्न : प्राकृत कथाओं में कर्म एवं पुरुषार्थ सम्बन्धी इन कुछ उदाहरणों से स्पष्ट है कि कर्मवाद अधिक सबल है । इसके प्रतिपादन के मूल में सम्भवतः यह प्रमुख कारण था कि ईश्वर जैसे सर्वशक्तिमान व्यक्तित्व के स्थानापन्न के रूप में कर्मवाद की स्थापना करना था। अतः उसे भी उतना हो अकाट्य और प्रभावशाली बनाया गया है । इसके पीछे जैन आचार्यों का यह भी उद्देश्य हो सकता है कि व्यक्ति कर्म को सब कुछ मान कर अपने कार्यों के प्रति मिथ्या अहंकार न करे । प्रयत्नों के उपरान्त यदि उसे सफलता न मिले तो वह कर्मफल को मानकर धैर्य धारण कर सके । दुःख की भयावह स्थितियों में वह घबड़ाये नहीं, अपितु अच्छे कर्मफल की प्राशा में उस स्थिति से उबर सके । साथ ही कर्मफल के प्रतिपादन में यह शिक्षा देना भी निहित रहा होगा कि व्यक्ति शुभकर्मों के अच्छे फल की ओर आकर्षित होकर सद्प्रवृत्तियों में पुरुषार्थ करे। इस तरह कर्मफल का प्रतिपादन एक ओर यदि जड़ और आलसी व्यक्तियों के लिए निष्क्रियता, भाग्यवाद, अन्धविश्वास आदि में प्रवृत्त होने का कारण है तो दूसरी ओर जागरूक व्यक्ति इससे पुरुषार्थ में प्रवृत्त होने की प्रेरणा भी ग्रहण कर सकते हैं । आधुनिक युग में कर्मवाद के सिद्धान्त के साथ कई प्रश्न चिन्ह जुड़े हुए हैं। यदि व्यक्ति का कर्म ही सब कुछ है, उसे उनका फल निश्चित ही भोगना पड़ेगा तो फिर वह सत्कार्यों में क्यों और कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? अतः प्राज के व्यक्ति ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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