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कर्म और पुरुषार्थ
77 अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के कर्मफलों के प्रति उदासीन वत्ति अपना ली है। भविष्य में मिलने वाले फल के प्रति उसका विश्वास नहीं रहा । इसीलिए वह वर्तमान में जीना चाहता है । वर्तमान को यथासम्भव सुखी बनाने के प्रयत्न में वह है । यदि सूक्ष्मता से देखें तो सम्भवतः यह प्रवृत्ति पालि-प्राकृत की कथानों में बहुत पहले से प्रारम्भ गयी थी । लोकिक पुरुषार्थ वहाँ प्रमुखता को प्राप्त है।
___ कर्म-सिद्धान्त के सम्बन्ध में दूसरा चिन्तन यह उभरा है कि कर्मों के फल अवश्य मिलते हैं । किन्तु हजारों वर्षों में, जन्मों में नहीं, अपितु तुरन्त ही वर्तमान जीवन में ही व्यक्ति सुख-दुःख भोग लेता है। उनकी मनोवृत्तियाँ ही उसे अच्छे-बुरे कार्यों में प्रवृत्त करती हैं, जिन पर वह अपनी चेतन शक्ति द्वारा नियन्त्रण करता रहता है । व्यक्ति के पुरुषार्थ के अागे अनन्त जन्मों की कर्मशृखला कोई मायने नहीं रखती । अब दिनों दिन व्यक्ति की दृष्टि सूक्ष्म और वैज्ञानिक होती जा रही है । अतः वह किमी कार्य का केवल एक कारण स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं है । सुख-दु ख अनेक कारणों के परिणाम हैं। कर्मफल उनमें से एक कारण हो सकता है । अतः अब कर्मवाद उतना भयावह नहीं रहा है और न आकर्षक हो, जितना प्राचीन समय में था।
वर्तमान युग के जीवन में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि एक व्यक्ति के कर्म केवल उसे ही प्रभावित नहीं करते । अपितु एक व्यक्ति के कर्मों का फल साम हिक भोगना पड़ सकता है । जैसे किसी यान चालक की लापरवाही का परिणाम सभी भुगतते हैं । अथवा किसी जमाखोर के कारण अनेक उपभोक्ता दुःखी हो सकते हैं । इसी प्रकार साम हिक कर्मों का फल भी व्यक्तिगत रूप से भोगना पड़ता है । देश में हरित क्रान्ति लाने वाले कुछ किसान हो सकते हैं, किन्तु उपज की समृद्धि का लाभ करोड़ों लोग उठाते है। अतः कर्म-सिद्धान्त में अब व्यक्ति अकेला भोक्ता नहीं है । इसलिये बहुत आवश्यक हो गया है कि साम हिक रूप से कर्मों में सुधार किया जाय । इन सब प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में जैन साहित्य में प्रतिपादित कर्मसिद्धान्त व पुरुषार्थ का विवेचन चिन्तनीय है।
सन्दर्भ 1. मेहता, मोहनलाल, जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग-4 2. भगवई, जैन विश्व भारती प्रकाशन, 1974, सूत्र 1, 2, 34 3. ठाणांग, 4-92 एवं प्रज्ञापना 23-1-290 ।
जीवा पुग्गलकाया अण्णोण्णागाढगहणपडिबद्धा । काले विज ज्झारणा, सुहदुक्ख दिति भुजन्ति ।।
--पंचास्तिकाय, गा. 67 । 5. पामोदएण अत्थो हत्थं पत्तो वि णस्सदि णरस्स ।।
दूरादो वि सपुण्णस्स एदि अत्थो अयत्तरण ।। भग. मा गा. 1731
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