Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 84
________________ 74 जैन धर्म और जीवन मूल्य प्राकृत कथाओं के कोशग्रन्थों में कर्मफल सम्बन्धी अनेक कथाएं प्राप्त हैं । पाख्यानमणिकोश में बारह कथाएं इस प्रकार की हैं। कम अथवा भाग्य के सामर्थ्य के सम्बन्ध में अनेक सुभाषित इस ग्रन्थ में प्रयुक्त हुए हैं। ऋषिदत्ता आख्यान के प्रसंग में कहा गया है कि कर्मों के अनुसार ही व्यक्ति सुख-दुख पाता है । अतः किये हुए कर्मों (के परिणाम) का नाश नहीं होता । यथा जं जेण पावियन्वं सहं व दुक्खं व कम्मनिम्मवियं । तं सो तहेव पावइ कयस्स नासो जसो नस्थि ।। .. पृ. 250, गा. 151 ।। प्राकृत-कथा-सग्रह में कर्म की प्रधानता वाली कथाएं हैं । समुद्रयात्रा के दौरान जब जहाज भग्न हो जाता है तब नायक सोचता है कि किसी को कभी भी दोष न देना चाहिये। सुख और दुख पूर्वाजित कर्मों का ही फल होता है ।18 इसी तरह प्राकृत कथानों में परीषह-जय की अनेक कथाएं उपलब्ध हैं। वहाँ भी तपश्चरण में होने वाले दुख को कर्मों का फल मानकर उन्हें समता पूर्वक सहन किया जाता हैं । अपभ्रश के कथा ग्रन्थों एवं कहाकोसु में इस प्रकार की कई कथाएं हैं। सुकुमाल स्वामी की कथा पूर्व-जन्मों के कर्म विपाक को स्पष्ट करने के लिए ही कही गयी है। होनहार कितनी बलवान है, यह इस कथा से स्पष्ट हो जाता है 119 पुरुषार्थ विवेचन : ___ कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी इन प्राकृतकथानों के वर्णनों पर यदि पूर्णत: विश्वास किया गया होता और भवितव्यता को ही सब कुछ मान लिया गया होता तो लौकिक और पारलौकिक दोनों तरह के कोई प्रयत्न व पुरुषार्थ जैन धर्म के अनुयायित्रों द्वारा नहीं किये जाते। इस दृष्टि से यह समाज सबसे अधिक निष्क्रिय, दरिद्र और भाग्यवादी होता। किन्तु इतिहास साक्षी है कि ऐसा नहीं हुआ। अन्य विधाओं के जैन साहित्य को छोड़ भी दें तो यही प्राकृत कथाएं लौकिक पोर पारमार्थिक पुरुषार्थों का इतना वर्णन करती हैं कि विश्वास नहीं होता उनमें कभी भाग्यवाद या कर्मवाद का विवेचन हुमा होगा। कर्म और पुरुषार्थ के इस अन्तर्द्वन्द्व को स्पष्ट करने के लिए प्राकृत कथाओं में प्राप्त कुछ पुरुषार्थ सम्बन्धी सन्दर्भ यहां प्रस्तुत ज्ञाताधर्मकथा में उदकज्ञाता अध्ययन में सुबुद्धि मन्त्री की कथा है। इसमें उसने जितशत्रु राजा को एक खाई के दुर्गन्ध युक्त अपेय पानी को शुद्ध एवं पेय जल में बदलने की बात कही । राजा ने कहा- यह नहीं हो सकता। तब मन्त्री ने कहा कि पुद्गलों में जीव के प्रयत्न और स्वाभाविक रूप से परिवर्तन होते रहते हैं । 20 अतः व्यक्ति के पुरुषार्थ से कम पुद्गलों को भी परिवर्तित किया जा सकता है । राजा ने इस बात को स्वीकार नहीं किया। तब सुबुद्धि ने जल शोधन की विशेष प्रक्रिया द्वारा उसी खाई के अशुद्ध जल को अमृत सुदश मधुर और पेय बनाकर दिखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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