Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 83
________________ कर्म एवं पुरुषार्थ का उपयुक्त उदाहरण है । वसुभूति के यज्ञदत्ता नाम की पत्नी थी । पुत्र का नाम सोमशर्म तथा पुत्री का सोमशर्मा था । उनके रोहिणी नाम की एक गाय थी । दान में मिली हुई खेती करने के लिए थोड़ी-सी जमीन थी । एक बार अपनी दरिद्रता को दूर करने के लिए वसुभूति शहर जा रहा था तो उसने अपने पुत्र से कहा कि मांगकर शहर से लौटूंगा । तब तक तुम खेती और दान में मिले धन से मैं तेरी और तेरी बहिन अपनी गाय मी बछड़ा दे देगी । इस तरह हमारे मैं साहूकारों से कुछ दान-दक्षिणा की रक्षा करना । उसकी उपज की शादी कर दूँगा । तब तक संकट के दिन दूर हो जायेंगे । 73 ब्राह्मण वसुभूति के शहर चले जाने पर उसका पुत्र के संसर्ग से नट बन गया । अरक्षित खेती सूख गयी । धूर्त से गर्भ रह गया और गाय का गर्भ किसी कारण से ब्राह्मण को भी दक्षिणा नहीं मिली। लौटने पर जब उसने घर के समाचार जाने तो कह उठा कि हमारा भाग्य ही ऐसा है 113 इस ग्रन्थ में इस तरह के अन्य कथानक भी हैं । सोमशर्म तो किसी नटी सोमशर्मा पुत्री के किसी गिर गया । संयोग से श्राचार्य हरिभद्र ने प्राकृत की अनेक कथाएं लिखी हैं । समराइच्चकहा और घूर्ताख्यान के अतिरिक्त उपदेशपद एवं दशवेकालिक चूरि भी उनकी कई कथाएं कर्मवाद का प्रतिपादन करती हैं। उनमें कर्म विपाक अथवा दैवयोग मे घटित होने वाले कई कथानक हैं, जिनके आगे मनुष्य की बुद्धि और शक्ति निरर्थक जान पड़ती है । 14 समराइच्चकहा के दूसरे भव में सिंहकुमार की हत्या जब स्वयं उसका पुत्र आनन्द राजपद पाने के लिए करने लगता है तो सिंह कुमार सोचता है कि जैसे अनाज पक जाने पर किसान अपनी खेती जीव अपने किये हुए कर्मों का फल भोगता है । 125 उपदेशपद में 'पुरुषार्थ या देव' नाम की एक कथा ही हरिभद्र ने प्रस्तुत की है। 16 इसमें कर्म फल की प्रधानता है । काटता है वैसे ही Jain Education International कुवलयमालाकहा में उद्योतनसूरि ने कई प्रसंगों में कर्मों के फल भोगने की बात कही है । पांच कषायों के वशीभूत होकर जीने वाले व्यक्तियों को क्या-क्या भोगना पड़ा इसका विस्तृत विवेचन लोभदेव श्रादि की कथाओं में इस ग्रन्थ में किया गया है । 17 राजा रत्नमुकुट की कथा में दीपशिखा और पतंगे का दृष्टांत दिया गया है । राजा ने पतंगे को मृत्यु से बचाने के लिये बहुत प्रयत्न किये । अन्त में उसे एक संदूकची में बन्द भी कर दिया। किन्तु प्रातःकाल तक उसे एक छिपकली खा ही गयी । राजा का प्रयत्न कर्म फल के आगे व्यर्थ गया । उसने सोचा कि निपुण वैद्य रोगी की रोग से रक्षा तो कर सकते हैं किन्तु पूर्वजन्मकृत कर्मों से जीव-रक्षा वे नहीं कर सकते । यथा - वेज्जा करेति किरियं श्रोसह जोएहि मंत-बल- जुत्ता । य करेंति वराया ण कयं जं पुण्य-जम्मम्मि || ..... For Private & Personal Use Only • कुव० 140.25 www.jainelibrary.org

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