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स्वाध्याय : ज्ञान की कुंजी
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___अपने द्वारा किया गया अध्ययन स्वाध्याय कहा जाता है। इसमें किसी गुरु की अपेक्षा प्रावश्यक नहीं। इस बात का गहरा अर्थ है। जब गुरु की अपेक्षा नहीं हो तो स्वाध्याय में पुस्तक भी अनिवार्य नहीं है। वह एक साधन मात्र हो सकती है तथ्य तक पहुंचने का, किन्तु जानना 'स्व' को होगा। इसका अर्थ हुना कि 'स्व' कहीं से भी, कुछ भी जान सकता है शायद इसीलिए भारतीय साहित्य में देशाटन को भी ज्ञानवृद्धि का एक उत्तम उपाय माना है। वहाँ भी स्वाध्याय हो सकता है। हमारे देश में तीर्थवन्दना इसी स्वाध्याय के हेतु प्रचलित हुई थी। पर्वतों पर, एकान्त स्थानों पर तीर्थों का होना अकारण नहीं है। वहां जाकर व्यक्ति संसार की विचित्रता और आत्मा की विशेषता के सम्बन्ध मे गहरायी से सोच सकता है।
स्वाध्याय का केवल धार्मिक और व्यक्तिगत महत्त्व ही नहीं है। समाज के अन्य क्षेत्रों में भी वह शोधन प्रारम्भ करता है। यदि स्वाध्याय के मूलमन्त्र सापेक्ष चिन्तन को पकड़ा जाय तो आज जो दुराग्रहों, मतमतान्तरों को लेकर झगड़े हैं, वे शान्त होंगे । आज जो संचय की प्रवृत्ति के कारण व्यक्ति दूसरों के हितों को छीनता है, वह 'स्व' के स्वरूप के सम्बन्ध में अज्ञान ही है । वह शरीर को ही सब कुछ मानता है। प्रतः उसकी सविधा के साधन एकत्र करता है। स्वाध्याय से जब उसे ज्ञात होगा कि शरीर और प्रात्मा में भेद है। एक अपना है, एक पराया, तो वह स्वमेव पराये शरीर के लिए चिन्ता करना छोड़ देगा। समाज की बुराइयां इससे दूर होंगी। अतः स्वाध्याय व्यक्ति को सामाजिक और सुयोग्य नागरिक भी बनाता है। वर्तमान सन्दर्मों में स्वाध्याय अपनी अर्थवत्ता पूर्ववत् ही बनाये हुए है, जरूरत उसके सही स्वरूप को उद्घाटित कर अपनाने की है।
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