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स्वाध्याय : ज्ञान की कुंजी
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प्रयोगों के बाद भी जब ग्रन्थों का अध्ययन एवं प्रज्ञाओं का सत्संग स्नातक को मशाल लिये हुए सडक पर खड़ा करता है तो घड़ी दो घड़ी का स्वाध्याय व्यक्ति को क्या बना देगा? यह तीसरा जीवन-मूल्य सोचने को विवश करता है कि स्वाध्याय और ढेर सारी किताबों का अध्ययन दोनों एक नहीं है । फिर है क्या स्वाध्याय, जिसकी सभी धर्मो में इतनी प्रतिष्ठा है ? आज हजारों वर्ष बाद भी उसकी सार्थकता पर हम सोचना चाहते हैं ?
वस्तुत: स्वाध्याय जीवन का पर्याय है। व्यक्ति जन्म-मरण की शृखला में निरन्तर कुछ न कुछ सीखता रहता है । प्रकृति के पदार्थ एवं चेतन द्रव्यों के हलनचलन को देखकर व्यक्ति कुछ जान लेता है। पेड़ से सेव टूटकर गिरा कि एक व्यक्ति ने पृथ्वी को गुरुत्वाकर्षण शक्ति का पता लगा लिया। यह स्वाध्याय है । यह जीवन है, सत्य के प्रति गहरी जिज्ञासा । इसमें अध्ययन का भारी वजन नहीं है, किन्तु जानने की सूक्ष्म सन गता है। वस्तुतः जीवन के चारों ओर की घटनाओं के प्रति सजग, चौकस पहरेदारी ही स्वाध्याय है । सम्भवतः इसीलिए किसी गुरु ने शिष्य को विदा करते हुए आशीष दी थी....
स्वाध्यात् मा प्रमद
प्राचीन शास्त्रों में स्वाध्याय को तप माना गया है । बड़ी अद्भुत बात है । स्वाध्याय द्वारा महावीर ने जीवन के सत्य को उद्घाटित किया है । वस्तुतः जानने में दो ही वस्तु महत्त्वपूर्ण होती हैं... ज्ञय और ज्ञाता। इनमें से ज्ञय को जानना विज्ञान है और ज्ञाता को जानना धर्म है। निष्प्रयोजन पदार्थों को जानना मिथ्या ज्ञान है और ज्ञाता के स्वरूप को जानना तप है, साधना है। अतः महावीर ने कहा कि अपनी अनुपस्थिति को तोड़ने का नाम स्वाध्याय है। जब महावीर कहते हैं कि जागते हुए जिनो तो उसका आशय यही है कि स्वाध्याय में जिओ। और जो जागता हुआ जियेगा, उससे कुछ गलत नहीं हो सकता। यही उसका तप है । समस्त व्रतों का मूल है....
'सर्वेभ्यो यद्वतं मलं स्वाध्यायः परमं तपः ।'
ज्ञाता को जानना सरल नहीं है। साधना और एकाग्र मनन की इसमें प्रावश्यकता है। सम्भवतः इस कारण ही धर्म और दर्शन के ग्रन्थों को पढ़ने का क्रम स्वाध्याय के साथ जुड़ा होगा। दूसरे जड़ और चेतन के स्वरूप का ज्ञान हो जाय, इसके पीछे यह भावना थी। किन्तु आगे चलकर स्वाध्याय एक परिपाटी हो गयी, जिसने युवा वर्ग में स्वाध्याय के प्रति अरुचि पैदा की। अाज के बदलते सन्दर्भो में यदि देखें तो स्वाध्याय का ऐसा प्रचलन कभी नहीं हुमा। परिवार का हर सदस्य अपने-आप कुछ न कुछ पढ़ता है। और एकान्त में मनोयोग से पढ़ता है। किन्तु
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