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अपरिग्रह के नये क्षितिज
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सामर्थ्य के अनुरूप समृद्ध भी । तब उसकी दुकान और मन्दिर में कोई फरक नहीं होगा । व्यापार और धर्म एक दूसरे पूरक होंगे।
___ प्रश्न रह जाता है समाज में व्याप्त शोषण व जमाखोरी की प्रवृत्ति को बदलने का। महावीर का चिन्तन इस दिशा में बड़ा संतोषी है। पूरे समाज को बदलने का दिवास्वप्न उसमें कभी नहीं देखा गया। किन्तु व्यक्ति के बदलने का पूरा प्रयत्न किया है। इसलिए महावीर का समाज अशुभ से शुभ की ओर, हेय से उपादेय की ओर जाने में किसी समारोह की प्रतीक्षा नहीं करता। भीड़ का अनुगमन नहीं चाहता। और न ही किसी राजनेता या बड़े व्यक्तित्व के द्वारा उसे उद्घाटन की आवश्यकता होती है । क्योंकि ये सभी मूर्छा के कार्य हैं । ममत्व और आकांक्षा के । इसलिए महावीर की दृष्टि से तो कोई भी व्यक्ति, किसी भी स्थिति में बदलाहट के लिए आगे आ सकता है। उसके परिवर्तन की रश्मियां समाज को प्रभावित करेंगी ही।
आज के भौतिकवादी युग में हमारी स्पर्धा मी जड़ हो गयी है। ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में अन्य देशों के साथ बराबरी के लिए प्रयत्न करना ठीक हो सकता है किन्तु भौतिकता एवं इन देशों के तथाकथित जीवन-मूल्यों के साथ भारतीय मनीषा को खड़ा करना अपनी परम्परा को ठीक से न समझ पाना है। अध्यात्म के जिन मूल्यों की थाती हमें मिली है, उसका शतांश भी अन्य देशों के पास नहीं है । फिर हम अपने को गरीब व हीन क्यों समझ रहे हैं ? रिक्त तो हम उस दिन होंगे जब भौतिक समृद्धि के होते हुए भी हमें अध्यात्म की खोज में भटकना पड़ेगा। कम से कम भगवान् महावीर की परस्परा में तो यह ऋणात्मकता की स्थिति न आने दें । महावीर जो हमें सौंप गये हैं उसमें अपनी सामर्थ्य से कुछ जोड़ें ही। भौतिकता का हमने बहुत व्यापार किया अब कुछ नैतिक मूल्यों की बढ़ोतरी का ही व्यापार सही।
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