Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 69
________________ अहिंसा : स्वरूप एवं प्रयोग 59 23. सूक्ष्मा न प्रतिगीडर्यन्ते प्राणिनः स्थूलमत्तं यः । ये शक्यास्ते विवज्यन्ते का हिसा संयतात्मनः ।। 24. मृतेऽ पि न भवेत् पापमतेऽ पि भवेद् ध्र वम् । पापधर्मविधाने हि स्वान्तं हेतु शुभाशुभम् ।। -प्रबोधसार । 25. भावणुद्धिमनुष्याणां विज्ञ या सर्वकर्मसु ।। अन्यथा चुम्व्यते कान्ता भावेन दुहितान्यथा ।।-सुभाषितावली पृ० 493 26. आरम्भेऽपि मदा हिंसा सुघीः सांकल्पकीयजेत् । ध्नतोपि कर्षकादुच्चःपापोऽध्यनन्नपि धीवरः ।। -~सागारधर्मामृत प्र० 2, श्लोक 22 । 27 जनधर्म- पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ. 182 । 28. यद्वा न आत्ममामय यावन्मंत्रासिकोशकम् । तावद् द्रष्टुच श्रोतु च तद्वाघां सहते न स: ।।-पंचाध्यायो, श्लोक 813 । 29. दण्डो हि केवलो लोकमिमं चामुच रक्षति ।। राज्ञा शत्रौ च मित्रे च यथादोषं समं धृतः ।। -सागारधर्मा० प्र. 4, श्लोक 5। 30. अभप्रो पत्थिजा तुभ प्रभयदाया भवाहि य । आणिते जीव-लोगम्मि, कि हिंसाए पसज्जसि ॥ - उत्तराध्ययनसूत्र 18-11। 31. जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पण तो । तं इच्छ परस्स वि मा वा एत्तियगं जिणसासरणयं ।। -वृहत्कल्प भाष्य । 32. एगे पाया-ठाणांगसूत्र 1-1 33. सर्वसत्वेषु हि समता सर्वाचरणानां परमाचरणम -नीतिवाक्यामृतम्, प्राचार्य सोमदेव । 34. पिहिमासवस्स दंतस्स पाव-कम्मं न बंधइ । - दर्शवेका०, 4/9/ DOE Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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