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अहिंसा : स्वरूप एवं प्रयोग
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यह उसी का प्रतिफल है कि वैदिक युग के क्रियाकाण्डों और प्राज के हिन्दू धर्म अनुष्ठानों में जमीन आसमान का अन्तर पा गया है। भारतीय समाज के विकास में अहिंसा का यह कम योगदान नहीं है।
अहिंसा समाजवाद और साम्यवाद की नींव है। लोग आज देश में समाज वाद-स्थापन की बात करते हैं। अहिंसा के उस महान् उद्घोषक ने आज से हजारों वर्ष पहिले समस्त विश्व में समाजवाद स्थापित कर दिया था । विश्व के समस्त प्राणियों को समान मानना, न केवल मनुष्यों को, इससे भी बड़ा कोई साम्यवाद होगा ? अहिमा महाप्रदीप की किरणें विकरित हो उद्घोष करती हैं, उस महामानव की वाणी गूंजती है -जो तुम अपने लिए चाहते हो, दूसरों के लिए, समूचे विश्व के लिए भी चाहो। और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के लिए भी मत चाहो, मत करो ।। क्योंकि एक चेतना की ही धारा सबके अन्दर प्रवाहित होती है 132 अतः सबके साथ समता का व्यवहार करो, यही आचरण सर्वश्रेष्ठ है '33 इससे तुम्हारा जीवन विकार वासनाओं से मुक्त होता चला जायेगा और निष्पाप हो जायेगा ।34
जैनधर्म की यही उदार दृष्टि अहिंसा को इतना व्यापक बना देती है कि उसे समूचे विश्व के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में देर नहीं लगेगी। क्योंकि उसने संसार से परायेपन को हटाकर अपनत्व जोड़ रखा है । संसार में परायेपन का ही अर्थ है-दुःख तथा हिंसा होना । और अपनात्व का अर्थ है-सुख एवं अहिंसा होना । क्योंकि जब समचा विश्व ही व्यक्ति का हो जाता है तो कौन उसे सत्यं एवं और सुन्दर नहीं बनाना चाहेगा ? अतः प्रत्येक प्रयत्नशील मानव को दुःख के परिहार और सुख के स्वीकार के लिए जैन संस्कृति की मूल देन अहिंसा को अपने जीवन में उतारना होगा। इप मं वर्षमय जीवन से संतप्त मानव को अहिंसा की सान्ध्र और शीतल छाया में ही शान्ति मिल सकेगी, अन्यत्र नहीं ।
सन्दर्भ
1. सव्वे जीवा वि इच्छन्ति जीविउ न मरिज्जिउ । 2. अमेध्यमध्ये कीटस्य, सुरेन्द्रस्य सुरालये ।
समाना, जीविताकांक्षा, समं मृत्युभयोर्द्वयोः ।। -प्राचार्य हेमचन्द्र 3. सव्वेसि जीवियं पिय
-आचारांगसूत्र १-२, ६२-६३ । 4. जह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एवमेव सव्वजीवाणं । 5. स्वीकीयं जीवितं यद्वत्सर्वस्य प्राणिनः प्रियम् । तदेतत्परस्यापि ततो हिंसा परित्यजेत् ।। -उपासकाध्ययन कल्प 24 श्लोक 292, पद्मपुराण पर्व 14, श्लोक 186
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