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सप्तम
अहिंसा : स्वरूप एवं प्रयोग
अहिंसा-संस्कृति प्रधान जैनधर्म में समता, सर्वभूतदया, संयम जैसे अनेक शब्द प्रहिंसा पाचरण के लिए प्रयुक्त हैं । वास्तव में जहां भी राग-द्वेषमयो प्रवृत्ति दिखलायी पड़ेगी वहां हिंसा किसी न किसी रूप में उपस्थित हो जाएगी । सन्देह, प्रविश्वास, विरोध, क्रूरता और घृणा का परिहार प्रेम, उदारता, प्रौर सहानुभूमि बिना संभव नहीं है । प्रकृति और मानव दोनों की क्रूरताओं का निराकरण संयम द्वारा ही संभव है । इसी कारण जैनाचार्यों ने तीर्थ का विवेचन करते हुए कषायरहित निर्मल संयम की प्रवृत्ति को ही धर्म कहा है । यह संयमरूप अहिसाधर्म वैयक्तिक र सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में समता और शान्ति स्थापित कर सकता है । इस धर्म का प्राचरण करने पर स्वार्थ, विद्वेष, सन्देह और अविश्वास को कहीं भी स्थान नहीं है । व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों का परिष्कार भी संयम या हिंसक प्रवृत्तियों द्वारा ही संभव है । कुन्दकुन्द स्वामी ने बताया है
जं णिम्मलं सुघम्मं सम्मत्तं संजमं तवं जाणं । तं तित्थं जिणमग्गे हवेइ जदि संतिभावेण ||
- बो. पा. गा० २७ ।
राग-द्वेष का अभावरूप समताचरण ही व्यक्ति श्रोर समूह के मूल्यों को सुस्थिर रख सकता है । आत्मोत्थान के लिए यह जितना आवश्यक है, उतना ही जीवन और जगत् की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए भी । वर्गभेद, जातिभेद भादि विभिन्न विषमतानों में समत्व और शान्ति का समाधान समता या समाचार ही है । मानवीय मूल्यों में जीवन को नियन्त्रित और नीतियुक्त बनाये रखने की क्षमता एकमात्र समता युक्त अहिंसाचरण में ही है । युद्ध, विद्वेष, और शत्रुता से मानव समाज की रक्षा करने के हेतु विधायक शब्द का प्रयोग करें तो वह समाचार कुटुम्ब, समाज, शिक्षा, व्यापार, शासन, संगठन प्रभृति में मर्यादा और नियमों की प्रतिष्ठा करता है, मानवीय मूल्यों की स्थापना करता है और प्राणिजगत् में सुख-कल्याण का प्रादुर्भाव करता है ।
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