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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
अन्य
की भावना से प्रसूत है, जहाँ जीव के सारे भेद समाप्त हो जाते हैं । संस्कृतियों के करुणा की भावना श्रवश्य है, प्रसंगवश हिंसा विरोधात्मक उपदेश भी दिये गये हैं, किन्तु उनमें जैनधर्म की इस उदारता की मिशाल पाना कठिन है । इसलिए शायद जीवदया की क्रिया को सबसे श्रेष्ठ एवं चिन्तामरिण रत्न के समान फल देने वाली मानी गयी है । तथा अहिसा के माहात्म्य से मनुष्य चिरजीवी, सौभाग्यशाली, ऐश्वर्यवान्, सुन्दर श्रौर यशस्वी होता है, यह स्वीकृत किया गया है | 7
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हिंसा-स्वरूप :
हिंसा क्या है, इस प्रश्न को जैनाचार्यों ने बड़ी सूक्ष्म प्रौर सरल विधि से समझाया है । सर्वप्रथम उन्होंने हिंसा का स्वरूप निर्धारित किया । तदुपरान्त उससे विरत होने की क्रिया को अहिंसा का नाम दिया। बात ठीक भी है, जब तक हम वस्तु के स्वरूप को न समझ लें, उससे सम्भावित हानि-लाभ से अवगत न हो जायें तव तक उसे छोड़ने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ।
हिंसा का सर्वागपूर्ण लक्षरण अमृतचन्द्राचार्य के इस कथन में निहित है - कषाय के वशीभूत होकर द्रव्यरूप या भावरूप प्राणों का घात करना हिंसा है 18 यह लक्षण समन्तभद्राचार्य द्वारा प्रणीत श्रहिंसाणुव्रत के लक्षण जैसा ही परिपूर्ण है । सर्वार्थसिद्धि एवं तत्वार्थ - राजर्वार्तिक में इसी का समर्थन किया गया है । जैसा वर्णन पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में है वैसा पूर्व या उत्तर के है |
प्रहिंसा और हिंसा का ग्रन्थों में नहीं मिलता
उपर्युक्त हिंसा के लक्षण में मनकी दुष्प्रवृत्ति पर अधिक जोर दिया गया है । क्योंकि तस् की कलुषता ही हिंसा को जन्म देती है । इसी बात को आचार्य उमास्वामी ने इस कथन से स्पष्ट किया है—
प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा 110
प्रमादवश प्राणों के घात करने को हिंसा कहते हैं । प्रमत्त शब्द मन की कलुबता, अज्ञानता, श्रसावधानी के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है। गृहस्थ जीवन में मनुष्य Saint क्रियाओं का प्रतिपादन करता है । किन्तु सभी क्रियाएं सावधानी और संयमपूर्वक नहीं होतीं । अनेक कार्यों को करते हुए मन में कषायभाव, कटुता उत्पन्न हो जाती है । इससे आत्मा की निर्मलता धुंधली पड़ जाती है । भावनाओं में विकार उत्पन्न हो जाते हैं । इन्हीं दुष्परिणामों से युक्त हो कोई कार्य करना हिंसा है । क्योंकि दुष्परिणामी व्यक्ति के द्वारा भले दूसरे प्राणियों का घात न हो लेकिन उसकी श्रात्मा का प्रात स्वयमेव हो जाता है । इसी प्रथं में वह हिंसक है 111 क्योंकि किसी दूसरे से किसी दूसरे का प्राणघात सम्भव ही नहीं है ।
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