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जन प्राचार-संहिता
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प्राचरण अहिंसक होते हैं। इस तरह जैन प्राचार प्रमुख रूप से जीवनवृत्ति में अनासक्ति ( अपरिग्रह ), विचार में अनाग्रह (अनेकान्त ) और आचरण में समत्व (अहिंसा) इन तीन प्राचारों का ही प्रतिपादन करता है। यदि दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जन आचार-संहिता मन, वाणी, और शरीर इन तीनों को पवित्रता में विश्वास रखती है । अनासक्ति (त्यागभावना) के द्वारा मन के दुराचरण को, अनाग्रह (अनेकान्त) के द्वारा वाणी के दुराचरण (वैचारिक असहिष्णुता) को, और अहिंसा द्वारा शरीर के दुराचरण (हिंसा, शोषण, परिताप आदि) को दूर करने का प्रयत्न जैन आचार द्वारा किया जाता है । इसी में मानव-कल्याण एवं प्राणि-संरक्षण की भावना छिपी हुई है। इनका पालन करने वाला ही सच्चा जैन है। सच्चा मानव है। अहिंसा : जेन प्राचार का मूलाधार :
जैन शास्त्रों के अध्ययन से यह भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि समस्त जैन आचार अहिंसा की नींव पर खड़ा है। प्राचारांगसत्र में भगवान् महावीर ने अहिंसा को ही शुद्ध, नित्य, और शाश्वत धर्म कहा है। यह धर्म लोक की-पीड़ा का हरण करने वाला है । अहिंसा के व्यापक क्षेत्र का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव, और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिये, उन पर शासन नहीं करना चाहिये, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिये, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिये, उनका प्राण-नियोजन नहीं करना चाहिये ।28 यही ज्ञानी होने का सार है और यही समस्त धर्मों का सार है कि किसी प्राणी की हिंसा न हो ।29 अहिंसा चर एवं अचर सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। 30 अहिंसा के समान दुसरा धर्म नहीं है । भगवती आराधना में कहा गया है कि अहिंसा सभी जीवन-पद्धतियों (आश्रमों) का हृदय है और सभी ज्ञानों का उत्पत्ति-स्थान है ।31 प्राचार्य अमृतचन्द्र ने जैन आचार के सभी आचार-नियमों को अहिंसा से ही विकसित माना है । इस तरह अहिंसा वास्तब में जैन प्राचार का मूलाधार है; और अहिंसा का प्राधार सभी प्राणियों में प्रात्मवत् दृष्टि है ।
जैन प्राचार-संहिता में अहिंसा के प्राध्यात्मिक पक्ष के साथ-साथ उसके सामाजिक एवं व्यावहारिक पक्ष पर भी विस्तृत चिन्तन किया गया है : गृहस्थ जीवन में रहते हुए परिवार, समाज, देश आदि के प्रति व्यक्ति के कई कर्तव्य होते हैं । उन कर्तव्यों का पालन करने में कुछ हिंसा हो जाती है; अतः जैन आचार-संहिता में हिंसा के चार स्तर बताये गये हैं। 1. सकल्पजा हिंसा : जान-बूझ कर संकल्प करके किसी पर आक्रमण करना । 2, विरोधजा हिंसा : जीवन के अधिकारों की सुरक्षा के लिए विवश हो कर
हिंसात्मक प्रवृत्ति करना ।
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