Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 55
________________ जन आचार-संहिता प्रकट करना । बनावटीपन का अभाव हो सत्यव्रत का पालन करना है । इस व्रत से व्यक्ति को अपनी सही सामर्थ्य का पता चल जाता है; अतः वह निर्भयता को प्राप्त हो जाता है । निर्भयता की स्थिति में चोरी करने की आवश्यकता नहीं रहती। किसकी सुरक्षा के लिए अथवा किम अावश्यकता की पूर्ति के लिए चोरी की जाए? अतः प्रात्मा और शरीर के इस भेद-विज्ञान का अनुभव ही अचौर्य है। इससे मिलावट, मुनाफाखोरी, कूट-व्यापार प्रादि चोरियों का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। शरीर के मिथ्या पोषण की भावना के कारण ही चोरी नहीं होगी; बेईमानी नहीं होगी। इस तरह जैन प्राचार ने इस समस्या का निदान मूल कारण को समाप्त करने में खोजा है बह्मचर्य व्रत का पालन गृहस्थ और साधु दोनों के लिए आवश्यक है : मर्यादाओं में कुछ अन्तर है । वासनाओं पर विजय प्राप्त कर शक्ति के अपव्यय को रोकना इस व्रत की मूल भावना है; अत: जैन दृष्टि में ब्रह्मचर्य का आध्यात्मिक अर्थ किया गया ब्रह्म (परमात्मा)-जैसा आचरगा; अर्थात् शुद्ध, निर्मल प्रात्मा के सुख का अनुभव करना । इसकी प्राप्ति के लिए स्वदारा-संतोष, शील का पालन, इन्द्रियों का निग्रह प्रादि सब साधन हैं। जैन आचार-संहिता में अपरिग्रह व्रत की व्याख्या अनुपम है। परिग्रह की सीमा रखना वस्तुओं का अनावश्यक संग्रह न करना. समवितरण को महत्त्व देना, दान देना आदि सब अपरिग्रह की ओर जाने वाले रास्ते हैं; किन्तु वस्तुतः अपरिग्रह द्वारा शाश्वत सुरक्षा में पहुँचना इस व्रत का मूल उद्देश्य है। मनुष्य आत्मा के म्वभाव से, शनि से, समृद्धि से परिचित न होने के कारण असुरक्षा में जीता है; प्रभाव में बना रहता है । उसे लगता है कि वह वस्तुओं का जितना अधिक संग्रह कर लेगा, उतना ही सुरक्षित और सुखी हो जाएगा; किन्तु वह यह नहीं जानता कि अचेतन पदार्थ चेतन प्रात्मद्रव्य की क्या सुरक्षा करेंगे ? प्रात्मा जो स्वयं पूर्ण और अानन्दमय है, उसे परिग्रह की वस्तुएं क्या दे सकेंगी ? अतः महावीर ने कहा कि वस्तुओं में प्रासक्ति एक बेहोशी (मूर्छा है-मूर्छा परिग्रहः । इस बेहोशी को तोड़ना ही अपरिग्रह है । यह मूर्छा प्रात्मा की पूर्णता को जानने से ही टूटेगी । व्यवहार में कम संचय, कम खर्च, कम आसक्ति करने से उस ओर जाने में मदद मिलेगी। इससे दूसरों का हक भी नहीं छिनेगा और समाज में सहअस्तित्व प्रगट होगा। जैन आचार ने अपरिग्रह व्रत पर उतना ही जोर दिया है, जितना अहिंसा पर ; क्योंकि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । संक्षेप में, ममत्व (तृष्णा) का विसर्जन और समत्व (समविभाजन)-की-साधना का नाम ही 'अपरिग्रह है। इससे अध्यात्म और समाज दोनों प्रभावित होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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