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पंचम
जैन धर्म का आधार : समता
आगम ग्रन्थ प्राकृत साहित्य के प्राधार ग्रन्थ हैं। समता प्रागमों का प्रमुख विषय रहा है। तभी प्रथम अंग ग्रन्थ प्राचारांग सूत्र में कहा गया कि ज्ञानी पुरुषों के द्वारा समता में धर्म कहा गया है-समियाए धम्मे प्रारएहि पवेदिते । सूत्रकृतांग एवं अन्य प्राकृत प्रागमों में 'समता" धर्म है, प्राचरण है, जीवन का प्राण है प्रादि अनेक रूपों में समता के विभिन्न प्रायामों को उद्घाटित किया गया । परवर्ती प्राकृत साहित्य भी कई दृष्टियों से सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में समता का पोषक है । इस साहित्य की प्राधारशिला ही समता है, क्योंकि भाषागत, पात्रगत एवं चिन्तन के धरातल पर समत्वबोध के अनेक उदाहरण इस साहित्य में उपलब्ध हैं । यहां कुछ मायामों को दृष्टिगत किया जा सकता है । भाषागत समानता :
___ भारतीय साहित्य के इतिहास में प्रारम्भ से ही संस्कृत भाषा को अधिक महत्त्व मिलता रहा है । संस्कृत की प्रधानता के कारण जन-सामान्य की भाषाओं को प्रारम्भ में वह स्थान नहीं मिल पाया, जिसकी वे अधिकारिणी थी। अतः साहित्यसृजन के क्षेत्र में भाषागत विषमता ने कई विषमतामों को जन्म दिया है। प्रबुद्ध और लोक-मानस के बीच एक अन्तराल बनता जा रहा था। प्राकृत साहित्य के मनीषियों ने प्राकृत भाषा को साहित्य और चिन्तन के धरातल पर संस्कृत के समान प्रतिष्ठा प्रदान की। इससे भाषागत समानता का सूत्रपात हुमा और संस्कृत तथा प्राकृत, समानान्तर रूप से भारतीय साहित्य और आध्यात्म की संवाहक बनीं। प्राकृत साहित्य का क्षेत्र विस्तृत है। पालि, अर्धमागधी, अपभ्रश प्रादि विभिन्न विकास की दशाओं से गुजरते हुए प्राकृत साहित्य पुष्ट हुआ है । प्राकृत भाषा के साहित्य में देश की उन सभी जन-बोलियों का प्रतिनिधित्व हुआ है, जो अपनेअपने समय में प्रभावशाली थीं। प्रतः प्रदेशगत एवं जातिगत सीमानों को तोड़कर प्राकृत साहित्य ने पूर्व से मागधी, उत्तर से शौरसेनी, पश्चिम से पंचाशी, दक्षिण
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