________________
जैन आचार-संहिता
37
अप्पा कत्ता विकता य. दुहाण य सहाण य ।।
अप्पा मित्तम मित्त च. दुप्पट्ठिय सुपट्ठियो । कर्म-बन्धन की प्रक्रिया एवं अच्छे-बुरे कर्मों का स्वरूप तथा उनके फल देने की प्रक्रिया प्रादि के सम्बन्ध में जैन दर्शन में विस्तार से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है ।10 मन, वचन और काय की प्रवृत्ति (योग) तथा रागद्वेष के भावों (कपाय) के द्वारा प्रात्मा के साथ कर्म-परणाणुओं का बन्ध होता है। ये कर्म-परमाणु आत्मा की मिथ्या धारणाओं, प्रवृत्तियों, प्रमाद, व्रत-रहित जीवन आदि कार्यों से आत्मा की ओर पाते हैं। यही आस्रव तत्त्व है। वहाँ प्रात्मा के योग और कषाय के अनुसार ये आत्मा के साथ बंध जाते हैं तथा समय आने पर वे ही उसे सुख-दुःख देते हैं; अतः यदि अात्मा चाहे तो अपने सही दृष्टिकोण, व्रत-युक्त जीवन, अप्रमाद पौर शुभ योग से इन कर्मों को पाने से रोक सकता है। जो कर्म आ चुके हैं उन्हें आत्मा अपने संयमित जीवन, तप और ध्यान प्रादि की प्रक्रिया के द्वारा कम कर सकता है। उनके फल को बदल सकता है। यही व्यक्ति का सार्थक पुरुषार्थ है । इस पुरुषार्थ में व्यक्ति को किपी ईश्वर प्रादि की कृपा की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि वह स्वयं अपने सुख-दुःख का रचयिता है।
मनुष्य जैसा कर्म करता है, पैसा फल भोगता है : यह सिद्धान्त कई दर्शनों में प्रतिपादित है । इस कम-सिद्धान्त ने व्यक्ति को भारवादी बना दिया था; क्योंकि जो उसने पूर्वकर्म किये हैं; उनसे ही उसका वर्तमान जीवन संचालित होता है । इस विचारधारा ने मनुष्य को ईश्वर की परतन्त्रता से निकाल कर कर्म-सिद्धान्त के हाथों कैद कर दिया था। यही कारण है कि सूब-दुःख के कारण के लिए भारतीय दर्शनों में कई मत प्रचालित हो गये थे। ममय, भाग्य, पुरुष, प्रकृति, संयोग आदि कई कारण सुख-दुःख के हेतु माने जाने लगे थे ।11 व्यक्ति के हाथ में ऐसा कुछ नहीं रह गया था कि वह इन पर विजय प्राप्त कर सके; किन्तु जैन-दर्शन ने इस दिशा में अपने मौलिक विनार प्रस्तुत किये। जैन ग्राचार संहिता के अनुसार व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से कर्मों की अवधि को घटा-बढा सकता है और उनकी फल देने की शक्ति को को कम-ज्यादा कर सकता है । इसे 'उदीरणा' कहा गया है। इसी तरह व्यक्ति अपने असत् कर्मों के कारण पुण्य को पाप में और सत् कार्यों के द्वारा पाप पुण्य में बदल सकता है। इसे 'संक्रमण' कहा गया है। ज्ञान और संयम के बल से ग्रात्मा को के फल देने की शक्ति को भी रोक सकता है, इसे 'उपशमन' कहते हैं ।12 इसी तरह की कई प्रक्रियाएँ जैन धर्म के कर्म-सिद्धान्त में वरिणत हैं। इस बदलाहट की प्रक्रिया ने व्यक्ति को भाग्यवादी बनने से बचा लिया। उसमें ऐसा विश्वास और पुरुषार्थ जागृत किया कि वह सदाचरण में प्रवृत्त हो सके ; अतः जागरण और पुरुषार्थ जैन प्राचार-संहिता के दो आधार-स्तम्भ हैं। इस तरह कर्मवाद जैन आचार का एक महत्त्वपूर्ण, प्राचीन और मौलिक सिद्धान्त है ।13
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org