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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
मानवता मूल्यांकन :
जैन कर्म सिद्धान्त के प्रतिपादन से यह स्पष्ट हुआ है कि श्रात्मा ही अच्छेबुरे कर्मों की केन्द्र है | आत्मा मूलतः अनन्त शक्तियों की केन्द्र है । ज्ञान और चैतन्य उसके प्रमुख गुण हैं; किन्तु कर्मों के आवरण से उसका शुद्ध स्वरूप छिप जाता है । जैन आचार सहिता प्रतिपादित करती है कि व्यक्ति का अन्तिम उद्देश्य प्रात्मा के इसी शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना होना चाहिये; तब यही आत्मा परमात्मा हो जाता है । आत्मा को परमात्मा में प्रकट करने की शक्ति जैन दर्शन ने मनुष्य में मानी है, क्योंकि मनुष्य में इच्छा, संकल्प, और विचार-शक्ति है इसलिए वह स्वतन्त्र क्रिया कर सकता है, अतः सांसारिक प्रगति और आध्यात्मिक उन्नति इन दोनों का मुख्य सूत्रधार मनुष्य ही है । जैन दृष्टि से यद्यपि सारी श्रात्माएँ समान हैं, सब में परमात्मा बनने के गुण विद्यमान है; किन्तु उन गुणों की प्राप्ति मनुष्य-जीवन में ही संभव है, क्योंकि सदाचरण एव संयम का जीवन मनुष्य-भव ही हो सकता है । इस प्रकार जैन आचार संहिता ने मानवता को जो प्रतिष्ठा दी है, वह श्रनुतम है । जैन आगम-ग्रन्थों में स्पष्ट कहा गया है कि अहिंसा, संयम, तप रूप धर्म का जो आचरण करता है उस मनुष्य को देवता भी नमस्कार करते हैं; यथा
धम्मो मंगलमुक्किट्ठ श्रहिंसा संजमो तवो । देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥
मनुष्य की इसी श्रेष्ठता के कारण जैनधर्म में दैवीय शक्ति वाले ईश्वर का कोई महत्त्व नहीं रहा । जैन दृष्टि से ऐसा कोई व्यक्ति ईश्वर हो ही नहीं सकता, जिसमें संसार को बनाने, या नष्ट करने की इच्छा बाकी हो। यह किसी भी देवीय शक्ति के सामर्थ्य के बाहर की वस्तु है कि वह किसी भी द्रव्य को बदल सके तथा किसी व्यक्ति को सुख-दुख दे सकें; क्योंकि हर द्रव्य गुणात्मक प्रौर स्वतन्त्र है । प्रकृति स्वयं अपने नियमों से संचालित है । व्यक्ति को सुख-दुःख उसके कर्म और पुरुषार्थ के अनुसार मिलते हैं; अत: जैन आचार संहिता में ईश्वर का वह अस्तित्व नहीं है जो मुस्लिम धर्म में मुहम्मद साहब का तथा ईमाई धर्म में ईसा मसीह का है । हिन्दू धर्म का सर्वशक्तिमान ईश्वर भी जैन धर्म में स्वीकृत नहीं है क्योंकि इससे मनष्य की स्वतन्त्रता और पुरुषार्थ बाधित होते हैं 15 प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन होता है। जैन धर्म का यह दृष्टिकोण वर्तमान युग के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से
समर्थित है ।
जैन धर्म में यद्यपि ईश्वर जैसी उस सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है, जो संसार के बनाने अथवा नष्ट करने में कारण है; तथापि जैन आचार संहिता आत्मा के उस शुद्ध स्वरूप के अस्तित्व को स्वीकार करती है, जो अपने श्रेष्ठतम गणों के कारण परमात्मा हो चुकी है। ऐसे अनेक परमात्मा जैनधर्म में स्वीकत हैं,
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