Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 49
________________ जैन प्रचार संहिता जो अनन्त सुखों का अनुभव करते हैं तथा इन संसार से मुक हैं। ऐसे परमात्माप्र को जैन आचार संहिता में 'अर्हत्' एव सिद्ध' कहा गया है। ये वे परम आत्माए हैं, जिन्होंने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर मात्मा के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार किया है । इन्हें प्राप्त, सर्वज्ञ, वीतरागी, केवली आदि नामों से भी जाना जाता है । इत् एवं सिद्धों की भक्ति तथा पूजा करने का विधान भी जन ग्राचार सहिता में है; किन्तु इनसे कोई सांसारिक लाभ की अपेक्षा नहीं की जाती । इनकी भक्ति उनके आध्यात्मिक गुणों को प्राप्त करने के लिए ही की जाती है, जिसके लिए भक्त को स्वयं पुरुषार्थ करना पड़ता है । 16 इस भक्ति से व्यक्ति की भावनाएँ पवित्र होती हैं, जिससे उनका प्राचरण निरन्तर शुद्ध होता जाता है; तथा आत्मा क्रमशः विकास को प्राप्त होती है । जैन प्रचार सहिता में आत्मा की तीन कोटियाँ मानी गयी हैं 17 (1) बहिरात्मा, जो शरीर को ही आत्मा समझता हुआ सांसारिक विषयों में लीन रहता है; ( 2 ) अन्तरात्मा, जो शरीर और आत्मा के भेद को समझता है तथा शरीर के मोह को छोड़ कर आत्मा के स्वरूप को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है; तथा ( 3 ) परमात्मा, जिसने श्रात्मा के सच्चे स्वरूप को जान लिया है और जो अनन्त ज्ञान तथा सुख का धनी है । 39 जैन श्राचार-संहिता के सोपान (त्रिरत्न) : जैनधर्म में तत्त्व-निरूपण द्वारा लोक के स्वरूप का विवेचन करके तथा कर्मसिद्धान्त के प्रतिपादन द्वारा मनुष्य में संकल्प और पुरुषार्थ की जागृति करके उसे आत्म-साधना का जो मार्ग बतलाया गया, वही जैन आचार संहिता का प्रमुख सोपान है । जैनाचार्य उमास्वामी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र इन तीनों को मोक्ष का मार्ग कहा है- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : 118 मोक्ष मार्ग में इन तीनों की प्रधानता होने से इन्हें 'त्रिरत्न' भी कहा गया हैं। इन तीनों का पारस्परिक घनिष्ठ सम्बन्ध है । 19 सम्यग्दर्शन ग्रात्म-साधना का प्रथम सोपान है। जीव, अजीव आदि तत्त्वों के स्वरूप पर श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। इससे व्यक्ति का दृष्टिकोण सही बनत है । यदि दृष्टि सही और विवेकपूर्ण है, तो ज्ञान और प्राचरण भी सही होगा । इस दृष्टि से जैन आचार संहिता में सम्यग्दर्शन तभी होता है, जब मिथ्यादृष्टि का, अज्ञान का प्रभाव हो जाए। जैनधर्म की परिभाषा में सम्यग्दर्शन को 'अध्यात्मिक जागृति' कहा गया है । सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से व्यक्ति ग्रात्मा के स्वरूप को जानने लगता है; अतः वह निर्भय और अहिंसक बन जाता है । उसके मन में सब जीवों के प्रति मैत्री भाव जागृत हो जाता है । जैनधर्म में सम्यग्दर्शन का जो सूक्ष्म विवेचन हुआ है, उससे ज्ञात होता है कि व्यावहारिक दृष्टि से सम्यग्दृष्टि व्यक्ति अच्छा नागरिक और नैतिक जीवन जीने वाला गृहस्थ बन जाता है । उसे जीवन को जीने की कला आ जाती है । जैन ग्रन्थों में सम्यग्दर्शन के जो आठ अंग प्रतिपादित हैं, वे वस्तुतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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