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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
सम्यग्दृष्टि-संपन्न व्यक्ति के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के उत्थान की सीढियाँ ही हैं 20
सम्यग्यदर्शन के उपरान्त साधक सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करता है। जिन तत्त्वों पर उसने श्रद्धान किया था, उन्हीं को वह पूर्ण रूप से जब जानता है, तब उसे सम्यग्ज्ञान की उपलब्धि होती है। वस्तुतः शरीर और प्रात्मा, अथवा जड़ और चेतन के स्वरूप को, उनके सम्बन्ध को पूर्ण रूप से जानना ही, 'सम्यग्ज्ञान' है । जैन प्राचार-संहिता में इस प्रात्म-ज्ञान का इमलिए विशेष महत्त्व है कि इसी ज्ञान के अाधार पर व्यक्ति का प्राचरा फलित होता है । यदि उसके दर्शन और ज्ञान में कोई दोष रह गया तो उसका आचरगा भी निर्दोष नहीं हो सकता, इस कारण ज्ञान की बड़ी सूक्ष्म व्याख्या जैनदर्शन में की गयी है ।21 मति, श्र त, अवधि, मनः पर्यय, एवं केवलज्ञान ये ज्ञान की पांच अवस्थाएँ हैं 2, साधक जिन्हें क्रमश प्राप्त करता है। केवलज्ञान ही पूर्ण एवं शुद्ध आध्यात्मिक ज्ञान है ।
जैन आचार-संहिता में सम्यग्ज्ञान का निरूपण करते समय व्यावहारिक दृष्टिकोगा भी अपनाया गया है । जैन दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ अनन्त गुणों का पूज है । एक छोटे से परमाणु में भी अपरंपार शक्ति है, अनेक गुण हैं। जैसे, जल में शीतलता है, तरलता है, मधुरता है, बिजलो है इत्यादि अनेक गुरण हैं; किन्तु कुछ ऐसे गण भी उसमें हैं जो हमारे अनुभव में नहीं पाते; अतः पदार्थ में अनन्त गण माने गये हैं । परस्पर विरुद्ध प्रतीत होन वाले गुण भी एक ही पदार्थ में विद्यमान होते हैं; किन्तु हम एक समय में एक दृष्टिकोण से पदार्थ के कुछ ही गणों को जान पाते हैं; अतः जैन दर्शन का कथन है कि हमें वस्तु-स्वरूप का निरूपण करते समय उसके दूसरे गणों की संभावना को भी स्थान देना चाहिए । यह चिन्तन जैन दर्शन का 'अनेकान्तवाद' नामक सिद्धान्त कहलाता है । विरोधों में समन्वय स्थापित करना इस सिद्धान्त को मुल भावना है ।23 इससे स्पष्ट है कि जैनदर्शन ने बड़ी उदारता से यह उद्घोपणा की है कि सत्य किमी एक व्यक्ति, जाति, धर्म, अथवा देश की सीमा में बँधा हा नहीं है । सत्य की अखण्डता को आदर देते हुए उसके बह आयामों को जानने का प्रयत्न करना ही सम्यग्ज्ञान का विषय है ।
__वस्तु के अनन्त धपत्मिक होने के कारण उसके स्वरूप का कथन भी एक साथ नहीं किया जा सकता; अत: जैनदर्शन ने अपेक्षा की दृष्टि से कथन करने की बात कही है । अनेक गणों को प्रकट करने की इस भाषिक शैली को 'स्याद्वाद' कहा गया है । स्याहाद में आग्रह के लिए कोई स्थान नहीं है । जैनदर्शन की ज्ञान-मीमांसा के इस अनेकान्तवाद और स्याद्वाद नामक सिद्धान्तों ने मानव के मस्तिष्क को उदार बनाया है । इससे प्रकृति के नाना रहस्यों को जानने की संभावनाएँ बढ़ी हैं । ज्ञाता का अहंभाव इससे तिरोहित हुमा है। यदि वर्तमान युग में वैज्ञानिक क्षेत्र में इस अनेकान्तवाद का प्रयोग हो तो अशान्ति और युद्ध के बड़े-से-बड़े खतरों के टाले जाने
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