Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 43
________________ जैन धर्म का आधार : समता 33 समभावो सामाइयं तण-कंचन सत्त-मित्त विसउत्ति । रिणरभिसंगचित्तं उचिय पवित्तिप्पहाणं च ।। प्राकृत साहित्य में समता के विभिन्न आयाम उजागर हुए हैं। संस्कृत में प्राकृत के एक “ सम' शब्द के लिए तीन अभिव्यक्तियाँ मिली हैं। सम-अर्थात् समना करना, समता धारण करना, सम-शम, अर्थात् शान्त करना। मन में उठने वाले इष्ट-अनिष्ट भावों में भी शान्ति धारण करना और सम-श्रम, अर्थात् श्रम-पूर्वक; पुरुषार्थ-पूर्वक जीवन व्यतीत करना । इस प्रकार समता की कुजी में समानता, शीतलता और श्रमशीलता के मार्ग उद्घाटित हुए हैं। इस पावन धरा पर प्राकृत साहित्य के अमृतवचन "समणों समसुहदुक्खो" के साथ-साथ देववाणी की पीयूषधारा "समदुःखसख धीरें सोऽ मतत्वाय कल्पतें” का भी गायन होता रहा है । यही समता वर्तमान में समानता और समविभाजन जैसे आदर्शों की जननी कही जा सकता है। प्राकृत के लौकिक साहित्य से भी समता-पोषक कई सूक्तिमणियां खोजी जा सकती हैं, जो जन-जन के सम्मान और विकास के मार्ग को प्रशस्त करेगी। सन्दर्भ 1. (अ) समयं सया चरे (सदा समता का प्राचरण करो)-सूत्र. 2.2.3 (ब) समयाए समणोहोइ (समता से श्रमण होता है)-उत्तरा. सूत्र, 25. 32 (स) चारिनं समभावो (समताभाव चारित्र है)-पंचास्तिकाय, गा. 107 __ " प्राकृत तथा अन्य भारतीय भाषाएँ" नामक लेखक का लेख, परिसंवाद (4) वाराणसी, 1988 देशी-शब्द कोश-मुनि दुलहराज (भूमिका) "जैन साहित्य में अंकित नारी की स्थिति" नामक लेखक का लेख, संगोष्ठीस्मारिका, वाराणसी, 1988 णो हीणे णो अतिरित्ते-आचा 1175 विशेष के लिए द्रष्टव्य; समता-दर्शन और व्यवहार, प्राचार्य नानेश, बीकानेर. 1985, पृ. 5 सत्तूमिने य समा पसंस रिणद्दा अलद्धि-लद्धि समा । तण-कणए समभावा पवज्जा एरिसा भणिया ॥ -बोधपाहुड, गा. 46 णारति सहती बीरे, वीरे णो सहति रति । जम्हा अविमणे वीरे तम्हा वीरे ण रज्जति ।। -आचारांग 000 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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