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जैन धर्म का श्राधार : समता
प्राणीमात्र की समता :
आध्यात्मिक क्षेत्र में समता के व्यापक विकास के लिए प्राकृत साहित्य का अपूर्व योगदान है । प्राणीमात्र को समता की दृष्टि से देखने के लिए समस्त श्रात्मानों के स्वरूप को एक माना गया है । देहगत विषमता कोई अर्थ नहीं रखती है यदि जीवगत समानता की दिशा में चिन्तन करने लग जाएँ । सब जीव समान हैं, इस महत्वपूर्ण तथ्य को स्पष्ट करने के लिए प्राकृत साहित्य में अनेक उदाहरण दिये गये हैं । परिणाम की दृष्टि से सब जीव समान हैं। ज्ञान की शक्ति सब जीवों में समान है, जिसे जीव अपने प्रयत्नों से विकसित करता है । शारीरिक विषमता पुद्गलों की बनावट के कारण है । जीव अपोद्गलिक है, श्रतः सब जीव समान हैं । देह और जीव में भेद-दर्शन की दृष्टि को विकसित कर इस साहित्य ने वैषम्य की समस्या को गहरायी से समाधित किया है । 11 " परमात्म प्रकाश में कहा गया है। कि जो व्यक्ति देह-भेद के आधार पर जीवों में भेद करता है, वह दर्शन, ज्ञान, चरित्र को जीव का लक्षण नहीं मानता । यथा-
देहविभेइयं जो कुणइ जीवाहं भंउ विचित्तु ।
सोण विलक्खा मुणइ तह दंसरग णारण चरितु ॥
इसी प्राणीमात्र की समता के कारण आचारांगसूत्र में पहले ही घोषणा कर दी गयी थी कि कोई प्रारणी न हीन है और न श्रेष्ठ । ऊँच-नीच की भावना तो हमारे अंहकार ने उत्पन्न की है, जो त्याज्य है ।
अभय से समत्व :
विषमता की जननी मूल रूप से भय है । अपने शरीर, सबकी रक्षा के लिए ही व्यक्ति औौरों की अपेक्षा अपनी अधिक करता है और धीरे-धीरे विषमता की खाई बढ़ती जाती है ।" में रख कर ही सूत्रकृतांग " में कहा गया कि समता उसी के को प्रत्येक भय से अलग रखता
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सामाइयमाहु तस्स जं जो प्राण भए ण दंसए
अतः अभय से समता का सूत्र प्राकृत ग्रन्थों ने हमें दिया है । वस्तुतः जब तक हम अपने को भयमुक्त नहीं करेंगे तब तक दूसरों को समानता का दर्जा नहीं दे सकते । अतः आत्मा के स्वरूप को समझकर राग द्वेष से ऊपर उठना ही अभय में जीना है, समता की स्वीकृति है ।
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परिवार, धन आदि
सुरक्षा का प्रबन्ध
इस तथ्य को ध्यान होती है जो अपने
विषमता की जननी व्यक्ति का अहँकार भी है । पदार्थों की प्रज्ञानता से अहंकार का जन्म होता है । हम मान में प्रसन्न और अपमान में क्रोधित होने लगते हैं और हमारा संसार दो खेमों में बंट जाता है । प्रिय और प्रिय की टोलियाँ बन
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