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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
से महाराष्ट्री आदि प्राकृतों को सहर्ष स्वीकार किया है । 2 किसी भी साहित्य में भाषा की यह विविधता उसके समत्वबोध की ही द्योतक कही जायेगी ।
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शब्दगत समता :
भाषागत ही नहीं, अपितु शब्दगत समानता को भी प्राकृत साहित्य में पर्याप्त स्थान मिला है । केवल विभिन्न प्राकृतों के शब्द ही प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त नहीं हुए हैं, अपितु लोक में प्रचलित उन देशज शब्दों की भी प्राकृत साहित्य में भरमार है, जो आज एक शब्द- सम्पदा के रूप में विद्वानों का ध्यान प्राकषित करते हैं । 3 दक्षिण भारत की भाषाश्रो में कन्नड़, तमिल आदि के अनेक शब्द प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त हुए है । संस्कृत के कई शब्दों का प्राकृतीकरण कर उन्हें अपनाया गया है । प्रतः प्राकृत साहित्य में शब्दों में यह विषमता स्वीकार नहीं गयी है कि कुछ विशिष्ट शब्द उच्च श्रेणी के हैं, कुछ निम्न श्रेणी के, कुछ ही शब्द परमार्थ का ज्ञान करा सकते हैं कुछ नहीं, इत्यादि ।
शिष्ट और लोक का समन्वय :
प्राकृत साहित्य कथावस्तु और पात्र चित्रण की दृष्टि से भी समता का पोषक है । इस साहित्य की विषय-वस्तु में जितनी विविधता है, उतनी और कहीं उपलब्ध नहीं है । संस्कृत में वैदिक साहित्य की विषयवस्तु का एक निश्चित् स्वरूप है । लौकिक संस्कृत साहित्य के ग्रन्थों में आभिजात्य वर्ग के प्रतिनिधित्व का ही प्राधान्य है । महाभारत इसका अपवाद है, जिसमें लांक और शिष्ट दोनों वर्गों के जीवन को झांकियाँ है । किन्तु प्रागे चलकर सस्कृत में प्रायः ऐसी रचनाएँ नहीं लिखी गयीं । राजकीय जीवन और सुख-समृद्धि के वर्ग ही इस साहित्य को भरते रहे, कुछ अपवादों को छोड़कर । प्राकृत साहित्य का सम्पूर्ण इतिहास विषमता से समता की श्रीर प्रवाहित हुआ है । उसमें राजात्रों की कथाएँ हैं तो लकड़हारों और छोटे-छोटे कर्म शिल्पियों की भी । बुद्धिमानों के ज्ञान की महिमा का प्रदर्शन है, तो भोले अज्ञानी पात्रों की सरल भंगिमाएँ भी हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय जाति के पात्र कथानों के नायक हैं तो शूद्र प्रौर वैश्य जाति के साहसी युवकों की गौरवगाथा भी इस साहित्य में वर्णित है । ऐसा समन्वय प्राकृत के किसी भी ग्रन्थ में देखा जा सकता है । "कुवलयमाला कहा" और "समराइच्चकहा" इस प्रकार की प्रतिनिधि रचनाए हैं । नारी और पुरुष पात्रों का विकास भी किसी विषमता से आक्रान्त नहीं है । इस साहित्य में अनेक ऐसे उदाहरण उपलब्ध हैं जिनमें पुत्र और पुत्रियों के बीच कोई दीवार नहीं खड़ी की गयी है । बेटी भौर बहू को समानता का दर्जा प्राप्त रहा है । अतः सामाजिक पक्ष के जितने भी दृश्य साहित्य में उपस्थित हुए हैं, उनमें निरन्तर यह आदर्श सामने रखा गया है कि समाज में समता का उत्कर्ष हो एवं विषमता की दीवारें तिरोहित हों ।
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