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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
जाती हैं । प्राकृत के ग्रन्थ यहीं हमें सावधान करते हैं । "दशवेकालिक" का सूत्र है कि जो वन्दना न करे, उस पर कोप मत करो और वन्दना करने पर उत्कर्ष ( घमण्ड ) में मत प्रो
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जेन वन्दे न से कुप्पे व न्दिनो न समुक्कसे
ऐसे उदारवादी दृष्टिकोण से ही समता हो सकती है। आचार्य कुन्दकुन्द ने ऐसी समता को ही सच्ची प्रव्रज्या माना है ।"
अप्रतिबद्धता : समता :
समता के विकास में एक बाघा यह बहुत प्राती है कि व्यक्ति स्वयं को दुसरों का प्रिय अथवा श्रप्रिय करने वाला समझने लगता है । जिसे वह ममत्व की दृष्टि से देखता है उसे सुरक्षा प्रदान करने का प्रयत्न करता है और जिसके प्रति उसे द्वेष हो हो गया है उसका वह अनिष्ट करना चाहता है । प्राकृत साहित्य में इस स्थिति से बहुत सतर्क रहने को कहा गया है। किसी भी स्थिति या व्यक्ति के प्रति प्रतिबद्धता समता का हनन करती है अतः "भगवती आराधना" में कहा गया है कि सब वस्तुओं से जो प्रतिबद्ध है (ममत्वहीन ), वही सब जगह समता को प्राप्त करता है। - भ. प्रा. 1683.)
सव्वत्थ प्रपडिबद्धो उवेदि सव्वत्थ समभावं ।
इस अप्रतिबद्धता की शिक्षा आचारांगसूत्र में इस प्रकार दी जा चुकी थी कि प्रात्मजागृत व्यक्ति न तो विरक्ति से दुखी होता है और न किसी प्राकर्षण से मोहित होता है । वह न तो खिन्न होता है और न प्रसन्न । क्योंकि समता में उसे सब बराबर हैं ।
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समता सर्वोपरि :
समता की साधना को प्राकृत भाषा के मनीषियों ने ऊंचा स्थान प्रदान किया है । अभय की बात कह कर उन्होंने परिग्रह - संग्रह से मुक्ति का संकेत दिया है । भयातुर व्यक्ति ही अधिक परिग्रह करता है । अतः वस्तुओं के प्रति ममत्व के त्याग पर उन्होंने बल दिया है, किन्तु समता के लिए सरलता का जीवन जीना बहुत श्रावश्यक बतलाया गया है । बनावटपन से समता नहीं आयेगी, चाहे वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में हो । यदि समता नहीं है, तो तपस्या करना, शास्त्रों का अध्ययन करना, मौन रखना आदि सब व्यर्थ है
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कि काहदि वणवासी कायक्लेसो विचित्त उववासो ।
प्रज्भयण मोणपहूदी समदा-रहियस्स समणस्स || - ( नियमसार. 124 )
प्राकृत साहित्य में सामायिक की बहुत प्रतिष्ठा है । सामायिक का मुख्य लक्षण ही ममता है । मन की स्थिरता की साधना समभाव से ही होती है। त्ररण कंचन, शत्रु-मित्र, प्रादि विषमताश्रों में प्रासक्ति रहित होकर उचित प्रवृत्ति करना ही सामायिक है । यही समभाव / सामायिक का तात्पर्य है । यथा
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