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जैन धर्म प्रोर जीवन-मूल्य
और उसके बाह्य प्रभाव की विस्तृत मीमांसा की है । जीव-जीव के बन्ध और मुक्ति का विश्लेषण महावीर ने बड़ी सूक्ष्मता से किया है । इसी से कर्म - सिद्धान्त प्रतिफलित हुआ है । महावीर का कथन है कि जीव में चैतन्य के साथ अचेतन अश है, वही कर्मों को खींचता है । अतः हमेशा पूर्ण सजग सचेतन रहो तथा मूर्छा और अचेतनता को तोड़ो | महावीर द्वारा प्राणियों की यह मानसिक चिकित्सा है। चेतनता में जीना ही धर्म है । धर्म के अनुष्ठान द्वारा ही आत्मा का शुद्धीकरण होता है । यथा- स्थानांग १|१|४०
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एगा धम्मपडिमा ज से श्राया पज्जबजाए । महावीर सजग पुरुषार्थी थे । अपनी आत्मा के प्रति इतने जाग्रत कि उन्हें अपनी मुक्ति के लिए किसी के प्रति समर्पण करने की आवश्यकता नहीं पड़ी । उन्होंने इस द्वन्द्व को ही मिटा दिया कि कोई एक समर्पण करने वाली आत्मा है और दूसरी अनुकम्पा करने वाली । आत्मा के दो स्वभाव नहीं हो सकते । अतः उन्होंने सजग और पुरुषार्थी प्रात्मा को ही परमात्मा स्वीकार किया । ईश्वरत्व को पहिचानने वाला शायद ही महावीर के सदृश कोई दूसरा हुआ हो । स्वयं जागना कोई महावीर से सीखे । उन्होंने नियमों को स्वीकार कर नियन्ता को तिरोहित कर दिया ।
विश्रुतज्ञा के धनी थे भगवान् महावीर । वे ज्ञान की सभी प्रवस्थानों से स्वयं गुजरे हैं । नहीं चाहते थे कि कोई श्रात्मा किसी प्रज्ञान को पकड़कर ही अपने को ज्ञानी मानती रहे अतः उन्होंने ज्ञान के प्रत्येक अंश की सीमा एवं उसके विस्तार का विवेचन किया। मतिज्ञान से लेकर केवलज्ञान तक को स्पष्ट किया । ज्ञान की इतनी गहराई में उतरने के कारण ही महावीर श्रोताओं के अन्तस् तक पहुँचकर उनके स्तर के अनुरूप ही देशना करते थे । वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने केवल अपने बोलने की चिन्ता नहीं की, अपितु सुनने वालों को भी अपने स्तर तक लाने का मार्ग उन्होंने बतलाया । ज्ञानी का पुरुषार्थ यही है कि स्वयं सजग रहकर औरों को प्रप्रमादी बनाये। महावीर ने ज्ञानी को प्रमाद न करने के लिए बार-बार कहा है । यथा - प्रलं कुसलस्स पमाएणं, णाणी नो पमायए कयावि (प्राचा० १/२/४ ) श्रादि । इसी बात को जैन प्राचार्यों ने आगे बढ़ाया है । कुन्दकुन्द कहते हैं कि बुद्धि का दुष्प्रयोग मत करो ( पंचास्तिकाय, १४० ) । कितनी ऊंची और आधुनिक संदर्भ की बात है ।
सत्य के तलस्पर्शी शोधक भगवान् महावीर ने पूर्ण ज्ञान के अधिष्ठाता होकर कहा कि लोग ज्ञान की कितनी छोटी-सी किरण को पकड़े बैठे हैं, जबकि सत्य की जानकारी सूर्य सदृश प्रकाश वाले ज्ञान से हो पाती है। महावीर के युग में चिन्तन की धारा अनेक टुकडों में बंट गयी थी । वैदिक परम्परा के अनेक विचारक थे तथा श्रमण-परम्परा में ६-७ विचारक अपने को २४वां तीर्थङ्कर सिद्ध करने में लगे हुए थे । महावीर इन सब से अलग थे । उन्हें आश्चर्य था कि सत्य के इतने दावेदार
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