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तृतीय
महावीर के चिन्तन-कण
भगवान् महावीर का जीवन-दर्शन जैन संस्कृति के विकास के साथ जुड़ा हुआ है । अतः महावीर के व्यक्तित्व को समझाने के लिए धर्म एवं दर्शन को सूक्ष्म व्याख्या जितनी प्रावश्यक है, उतना ही इतिहास और साहित्य का सूक्ष्म तुलनात्मक परिशीलन करना । जैन इतिहास की परतें उघाडने से अनेक तथ्य हाथ लगे हैं, जिन्होंने जैन धर्म एवं उसके प्रवर्तकों के स्वरूप को पर्याप्त स्पष्ट किया है। तीर्थङ्कर महावीर का युग एक विशेष प्रकार की परिस्थिति से गुजर रहा था। ऋषभदेव के समय के लोग सरल थे तथा बीच के तीर्थङ्करों ने सरल और समझदार (ऋजु-प्राज्ञ) लोगों का सामना किया, जबकि महावीर के युग के लोग समय के प्रभाव से तर्कप्रिय और चतुर हो गये थे । एकान्तवादी भी। अतः महावीर को धर्म को अधिक व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करना पड़ा। यद्यपि महावीर द्वारा विवेचित धर्म में ऋषभदेव की अकिंचन मुनिवृत्ति, नमिनाथ की अनासक्ति, नेमिनाथ की करुणा और पाश्वनाथ की अहिंसामय साधना सम्मिलित थी फिर भी बहुत कुछ नया था-व्यक्तिगत रूप से अनुभूत तत्त्वज्ञान का प्रस्तुतिकरण एवं संघ-व्यवस्था प्रादि । महावीर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने व्यक्ति-स्वातन्त्र्य को सामाजिक और धार्मिक धरातल पर प्रतिष्ठापित किया । महावीर के व्यक्तित्व के विभिन्न गुण हैं, जो अनुकरणीय हैं।
महावीर तत्त्वज्ञान के सफल व्याख्याता थे। उन्होंने जगत् के पदार्थों से साक्षात्कार कर उन्हें भलीभांति समझा था। संसार के पदार्थों (जीव-अजीव) का अध्ययन उन्होंने किसी प्रयोगशाला में नहीं किया था, अपितु अपनी आत्मा के स्पन्दन के विस्तार और ज्ञान के विशदीकरण के द्वारा वे समस्त पदार्थों के स्वरूप प्रादि को समझ सके । महावीर जब जगत् को अनादि और अनन्त कहते हैं तो उसका अर्थ है कि संसार न कोई पैदा कर सकता है और न ही इसका कहीं अन्त होगा । परिवर्तन चाहे जो होते रहें। उनकी अनन्तता (संख्या का विसर्जन) का यह गणित अद्भुत है।
एक कुशल मनोवैज्ञानिक की तरह महावीर ने प्राणियों के मानसिक-स्पन्दन
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